28 दिसंबर 2015
भारत में मुसलमान होने का दर्द
शाहरूख खान, आमिर खान और असहिष्णुता पर बहस
-राम पुनियानी
शाहरूख खान की फिल्म ''दिलवाले'' की रिलीज़ (दिसंबर 2015) के अवसर पर शिवसेना व अन्य हिंदुत्व संगठनों ने देश भर के सिनेमाघरों पर प्रदर्शन किए। उनका कहना था कि वे देश में बढ़ती असहिष्णुता
संबंधी शाहरूख खान की टिप्पणी का विरोध कर रहे थे। कुछ हफ्तों पहले, अपनी 50वीं वर्षगांठ पर एक कार्यक्रम में शाहरूख खान ने कहा था कि भारत में असहिष्णुता बढ़ रही है और किसी भी देशभक्त के लिए धर्मनिरपेक्ष न होने से बड़ा अपराध कुछ नहीं हो सकता। उनका यह कहना भर था कि पूरा हिंदुत्व कुनबा उन पर टूट पड़ा। उन्हें राष्ट्रविरोधी और देशद्रोही करार दिया गया और यह भी कहा गया कि उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। भाजपा के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि शाहरूख रहते भारत में हैं परंतु उनकी आत्मा पाकिस्तान में बसती है। इस बवाल के बाद, शाहरूख खान ने एक बयान जारी कर कहा कि ''अगर किसी को मेरी टिप्पणी से ठेस पहुंची हो तो मैं क्षमा चाहता हूं''। उन्होंने यह भी कहा कि वे ऐसा इसलिए नहीं कह रहे हैं क्योंकि उनकी फिल्म रिलीज होने वाली है बल्कि वे सच्चे दिल से क्षमाप्रार्थी हैं। इसके बाद, कैलाश विजयवर्गीय ने ट्वीट किया कि राष्ट्रवादियों ने ''नालायकों'' को सबक सिखा दिया है।
यह पहली बार नहीं है कि शाहरूख खान पर इस तरह के बेहूदा आरोप लगाए गए हों और उन्हें राष्ट्रविरोधी करार दिया गया हो। सन 2010 में जब उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाडि़यों को आईपीएल क्रिकेट टूर्नामेंट में खेलने के लिए भारत आने की अनुमति देने की वकालत की थी, तब भी शिवसेना ने काफी हल्ला मचाया था और मुंबई में उनकी फिल्म ''माय नेम इज़ खान'' के पोस्टर फाड़े और जलाए थे। शाहरूख, वैश्विक स्तर पर इस्लाम के प्रति व्याप्त घृणा के वातावरण के भी शिकार हुए हैं और अमरीका में दो बार उनकी सघन तलाशी ली गई और हवाईअड्डों पर उनसे लंबी पूछताछ हुई। कुछ इसी तरह के अनुभवों से आमिर खान और दिलीप कुमार को भी गुज़रना पड़ा। कुछ समय पूर्व, आमिर खान ने रामनाथ गोयनका पत्रकारिता पुरस्कार कार्यक्रम में अपनी व्यथा को स्वर देते हुए कहा था कि उनकी पत्नी किरण राव असुरक्षित महसूस करती हैं, विशेषकर उनके पुत्र को लेकर। इसके जवाब में भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने कहा कि आमिर खान पाकिस्तान के हाफिज सईद की तरह बात कर रहे हैं और बेहतर यही होगा कि वे पाकिस्तान चले जाएं।
आमिर खान ने अपने स्पष्टीकरण में कहा कि उनके मन में भारत छोड़ने का विचार कभी नहीं आया और वे यहीं रहेंगे। उन्होंने रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविता ''जहां कि मन निर्भीक हो और सिर ऊँचा रहे...'' को भी उद्धृत किया। आमिर खान को संघ परिवार के विभिन्न प्यादों ने अलग-अलग समय पर देशद्रोही और राष्ट्रविरोधी बताया और चूंकि ऐसे बेसिरपैर के आरोप लगाने वालों को संघ परिवार के शीर्ष नेतृत्व ने आड़े हाथों नहीं लिया, इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि वे भी इन टिप्पणियों से सहमत थे। विहिप के एक नेता ने टीवी पर परिचर्चा में भाग लेते हुए कहा कि जब शाहरूख खान जैसा व्यक्ति ऐसी बातें करता है, तो पूरे समुदाय पर संदेह की छाया पड़ जाती है। इससे यह स्पष्ट है कि विहिप की दृष्टि में संपूर्ण मुस्लिम समुदाय की देश के प्रति वफादारी संदेह के घेरे में है।
पेशावर में जन्मे भारतीय फिल्म जगत के दैदिप्यमान सितारे दिलीप कुमार को भी इसी तरह की अपमानजनक टिप्पणियों का सामना करना पड़ा था। सन 1998 में जब उन्होंने दीपा मेहता की फिल्म 'फायर' का समर्थन किया तब शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने चड्डियां पहनकर उनके घर के सामने प्रदर्शन किया था। जब उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ से नवाज़ा गया तब भी इसका जबरदस्त विरोध हुआ और यह मांग की गई कि उन्हें इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। वे पाकिस्तान गए और उन्होंने इस सम्मान को स्वीकार किया। उस समय भी हिंदू राष्ट्रवादियों ने उन्हें देशद्रोही और राष्ट्रविरोधी बताया था। इस कटु हमले से दिलीप कुमार इतने आहत हुए कि उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिलकर उन्हें अपनी व्यथा से परिचित करवाया। इसके बाद, वाजपेयी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि दिलीप कुमार की राष्ट्रभक्ति पर कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिए। इस मामले में वाजपेयी, संघ परिवार के एकमात्र ऐसे नेता हैं जिसने खुलकर इस तरह की टिप्पणियों को अनुचित बताया। अन्य सभी नेता इस मामले में चुप्पी साधे रहते हैं। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को भी पाकिस्तान सरकार ने यह सम्मान दिया था।
देश में असहिष्णुता पर जो बहस चल रही है, उसमें इस तरह की बहुत-सी बातें कही जा रही हैं जो आधारहीन और अशिष्ट हैं। साक्षी महाराज, साध्वी निरंजन ज्योति, योगी आदित्यनाथ, मनोहरलाल खट्टर, कैलाश विजयवर्गीय व संगीत सोम जैसे हिंदुत्ववादी नेताओं के बयान, हमारे समाज की जड़ों पर प्रहार हैं। प्रधानमंत्री की चुप्पी इस बात की द्योतक है कि भाजपा-आरएसएस को इन बयानों से कोई परहेज़ नहीं है। दाभोलकर, पंसारे व कलबुर्गी की हत्या और अख़लाक को पीट-पीटकर मार डाले जाने की घटनाओं ने हालात की गंभीरता को और बढ़ाया। इसके बाद, पूर्व एडमिरल रामदास व अनेक शिक्षाविदों, इतिहासविदों, कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने देश में बढ़ती असहिष्णुता पर अपनी चिंता जाहिर की और उनमें से कई ने उन्हें मिले पुरस्कार लौटा दिए। पुरस्कार लौटाने का निर्णय, संबंधित व्यक्तियों ने स्वयं लिया था और इसके पीछे कोई योजना नहीं थी। यह सिलसिला बिहार के विधानसभा चुनाव के नतीजों की घोषणा तक जारी रहा। बिहार के चुनाव नतीजों ने देश में एक नई आशा का संचार किया और पुरस्कार लौटाने का सिलसिला थम गया। बिहार चुनाव नतीजों के बाद केवल जयंत महापात्र ने अपना पुरस्कार लौटाया।
यह महत्वपूर्ण है कि जब पुरस्कार लौटाने का सिलसिला चल रहा था, उसी दौरान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से लेकर उद्योगपति नारायणमूर्ति व किरण मजूमदार शॉ व भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन सहित कई हस्तियों ने देश में बढ़ती असहिष्णुता पर चिंता व्यक्त की। असहिष्णुता का मुद्दा उठाने पर केवल मुसलमान हस्तियों को निशाना बनाया गया और उनकी देशभक्ति पर संदेह व्यक्त किया गया। क्या कारण है कि किसी ने भी राष्ट्रपति की आलोचना करने की हिम्मत नहीं दिखाई? जिन गैर-मुसलमानों पर इस सिलसिले में हमले किए गए, उनके पीछे राजनीतिक कारण थे। आमिर खान ने बिलकुल ठीक कहा कि उनके वक्तव्य पर जिस तरह की प्रतिक्रिया हुई, उससे संदेह के परे यह सिद्ध हो गया कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। एक ही तरह के बयान देने वाले मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के साथ अलग-अलग व्यवहार से संघ परिवार की मानसिकता ज़ाहिर होती है।
हम सबको याद है कि मक्का मस्जि़द, मालेगांव, अजमेर व समझौता एक्सप्रेस में बम धमाकों के बाद किस तरह केवल संदेह के आधार पर बड़ी संख्या में मुसलमान युवकों को गिरफ्तार कर जेलों में डाल दिया गया था। बाद में, हेमंत करकरे द्वारा की गई सूक्ष्म जांच से यह सिद्ध हुआ कि इन धमाकों के पीछे हिंदुत्व समूहों का हाथ था और इनमें साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित, मेजर उपाध्याय व स्वामी असीमानंद की भूमिका थी। इसके बाद, मुसलमान युवकों की अंधाधुंध गिरफ्तारियों पर कुछ रोक लगी। मुझे याद है कि उसी दौर में, सन 2009 में, मैंने 'अनहद' (एक्ट नाउ फॉर हार्मोनी एंड डेमोक्रेसी) द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लिया था। कार्यक्रम का विषय था, ''भारत में मुसलमान होने का क्या अर्थ है?''। कार्यक्रम में जानमाने मुस्लिम लेखकों और कार्यकर्ताओं ने अपने दिल का दर्द जिस तरह उड़ेला और यह कहा कि उन्हें ऐसा लगता है कि उनके साथ अलग व्यवहार किया जा रहा है और केवल मुसलमान होने के कारण उन पर हमले हो रहे हैं, उसे देख-सुनकर मुझे बहुत पीड़ा हुई। मेरे ये सभी मित्र उनके कार्यों और उनकी लेखनी के लिए जाने जाते हैं और उनके धर्म से इसका कोई लेनादेना नहीं है। नसीरूद्दीन शाह ने अभी हाल में ठीक यही कहा। उन्होंने कहा कि पहली बार उन्हें यह एहसास कराया जा रहा है कि वे मुसलमान हैं। जूलियो रिबेरो ने कहा, ''ईसाई बतौर मैं अपने आपको इस देश में अजनबी पा रहा हूं''।
धर्मनिरपेक्ष व बहुवादी मूल्य, भारतीय प्रजातंत्र की नींव हैं। दक्षिण एशिया के अन्य देशों, जहां प्रजातंत्र की जड़ें मज़बूत नहीं हैं, की तुलना में हमारा देश हमेशा से कहीं अधिक धर्मनिरपेक्ष, बहुवादी और प्रजातांत्रिक रहा है। अगर इन देशों से हमारी तुलना की जाने लगी है तो यह हमारे लिए शर्मनाक है। हम प्रगतिशील हैं, प्रतिगामी नहीं। हमारे देश में एकाधिकारवादी शासन नहीं है और ना ही हम धार्मिक कट्टरवाद में विश्वास रखते हैं। यह कहना कि भारतीय मुसलमानों की स्थिति, पाकिस्तान या सऊदी अरब के मुसलमानों से बेहतर है, स्वयं को अपमानित करना है और उन हज़ारों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की विरासत को नकारना है, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता की खातिर अपने जीवन तक को बलिदान कर दिया। कहने की आवश्यकता नहीं कि हमें इस पर विचार करना चाहिए कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। अगर हमें हमारे प्रजातांत्रिक-बहुवादी मूल्यों को जिंदा रखना है तो हमें धर्म के नाम पर की जा रही राजनीति से डट कर मुकाबला करना होगा। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
संपादक महोदय,
कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें।
- एल. एस. हरदेनिया
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