Saturday, 11 August 2012 10:42
अनिल चमड़िया
जनसत्ता 11 अगस्त, 2012: छत्तीसगढ़ के बीजापुर के तीन गांवों के सत्रह आदिवासियों के केंद्रीय सुरक्षा बलों और स्थानीय पुलिस की गोलियों से मारे जाने की घटना पर दिल्ली में आयोजित एक सभा में प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने जो कुछ कहा वह ऐसी तमाम घटनाओं पर सवाल खड़े करता है। उन्होंने दावे के साथ कहा कि 28 जून 2012 की रात राजपेटा, सारकीगुड़ा और कोत्तागुड़ा में नक्सलियों के साथ मुठभेड़ का दावा कतई सही नहीं था। इसके मुठभेड़ होने का दावा महज इस आधार पर किया जा रहा है, क्योंकि वहां पुलिस वाले भी घायल हुए हैं। उन्होंने बताया कि वे भी पुलिस में रह चुके हैं और इस घटना के बारे में कह सकते हैं कि पुलिस द्वारा चौतरफा गोली चलाए जाने से ही कुछ पुलिस वाले घायल हुए। पुलिस वालों का घायल होना अनिवार्य रूप से किसी मुठभेड़ को सही साबित नहीं कर सकता। उन्होंने कांग्रेस की स्थानीय जांच समिति की रिपोर्ट के हवाले से कहा कि बस्तर में इस प्रकार की फर्जी मुठभेड़ की घटनाएं लगातार होती रही हैं। यह घटना उसी सिलसिले की एक कड़ी है।
अजीत जोगी ने जो सवाल खड़े किए हैं उनकेमद््देनजर देश में पिछले कुछ वर्षों में घटी कई घटनाओं पर फिर से विचार करने की जरूरत महसूस होती है। दिल्ली के बटला हाउस कांड में भी दो मुसलिम युवकों के आतंकवादी होने और पुलिस से मुठभेड़ में उनके मारे जाने का दावा किया गया था। मुठभेड़ के वास्तविक होने का दावा इस आधार पर किया गया था कि वहां एक पुलिस अधिकारी की गोली लगने से मौत हुई थी। अठारह जुलाई को गुड़गांव में मानेसर स्थित मारुति कारखाने में एक प्रबंधक की मौत के पीछे वजह यही बताई गई है कि उन्हें कामगारों ने जला दिया।
पहले हमें इस पहलू पर विचार करना चाहिए कि इन वर्षों में घटी कई घटनाओं को लेकर संदेह जाहिर किए गए हैं। मुठभेड़ के वाकयेपहले भी होते रहे हैं और औद्योगिक इलाकों में श्रमिकों के असंतोष और आंदोलन की स्थितियां भी सामने आती रही हैं। लेकिन उन घटनाओं को लेकर आने वाली खबरों में पारदर्शिता होती थी। किसी भी घटना से जुड़े तथ्य यह बयान करने में सक्षम होते थे कि दो पक्षों के बीच किसकी किस तरह की भूमिका रही होगी। लेकिन अब ऐसी घटनाओं के प्रस्तुत ब्योरे न केवल विवादास्पद होते हैं बल्कि भ्रामक भी। इसके कारणों का एक तात्कालिक परिप्रेक्ष्य है और उसे यहां समझने की जरूरत है।
अमेरिका को जब इराक पर हमला करना था तो उसने दावा किया कि वहां के शासक रासायनिक हथियार बना रहे हैं। यह प्रचार महीनों और वर्षों तक किया जाता रहा, ताकि अमेरिका और ब्रिटेन को इराक पर हमले के लिए आम सहमति प्राप्त हो सके। नियम-कानूनों पर चलने का दावा करने वाली राजनीतिक व्यवस्थाओं में यह अमान्य है कि कोई देश किसी दूसरे देश पर इस तरह से हमला करे।
लिखित नियम-कानूनों और तमाम तरह के अंतरराष्ट्रीय करारों को धता बता कर हमले की स्वीकृति दुनिया की बड़ी ताकतें चाहती थीं। जबकि इराक की बरबादी के बाद यह तथ्य सामने आया कि वह ऐसा कोई जन-संहारक हथियार नहीं बना रहा था। दरअसल, भूमंडलीकरण की पूरी प्रक्रिया को हमें तार्किक ढंग से समझना होगा। इस व्यवस्था में यह निहित है कि दुनिया के ताकतवर लोग शासन संचालित करने के जो तर्क और पद्धति विकसित कर रहे हैं उनका अनुसरण पूरे विश्व में किया जाना है।
अब हमले के लिए एक नए तरह के छद्म तर्कों का ढांचा खड़ा किया गया है। दुनिया की बड़ी ताकतों ने अपने फैसलों को लागू करवाने के लिए संविधानेतर नियम-कानून बनाए हैं और वे पूरी दुनिया में नीचे तक गए हैं। नीचे तक वे तर्क अपनी स्थानीयता के साथ लागू होते हैं। बीजापुर, बटला हाउस या मानेसर जैसी घटनाओं में वैसी ही प्रतिक्रियाएं देखी जा रही हैं। पूरा का पूरा शासन तंत्र एक स्वर में बोलता दिखाई देता है। यहां गौरतलब है कि भारतीय शासन-व्यवस्था गणराज्य पर आधारित है, लेकिन ऐसी घटनाओं में दलों और सरकारों में कोई फर्क नहीं रह जाता है। यहां तक कि लोकतंत्र के दूसरे महत्त्वपूर्ण स्तंभ भी उसी रंग में रंगे दिखाई देते हैं। याद करें कि इराक पर हमले के समय सहमति का क्या आलम था। कैसे सारी दुनिया के विकसित देश एक स्वर में बोल रहे थे और इसके लिए उन्होंने अपनी जांच एजेंसियों की कार्य-क्षमता को किनारे कर अमेरिकी प्रचार को जस का तस स्वीकार कर लिया था।
समाज की कई तरह की क्षमताओं को शासक नष्ट करते हैं। उसकी तार्किक और आकलन क्षमता को नष्ट करना उनकी प्राथमिकता में होता है। बिहार के पूर्णिया जिले के रूपसपुर चंदवा में बाईस नवंबर 1971 को पूरे गांव के संथाल आदिवासियों के घरों को जला कर, उन्हें गोली मार कर, लाशों को नदी में बहा दिया गया। तब भी उन्हें ही हिंसक और फसलों का लुटेरा बताया गया था।
प्रेस की भूमिका तब भी वैसी ही थी। लेकिन लोगों की नाराजगी और आंदोलन ने सरकार को मजबूर किया कि उन हत्याओं में आरोपी बिहार विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष लक्ष्मीनारायण सुधांशु और दूसरे लोगों को गिरफ्तार करे।
साहेबगंज के बांझी में भी पंद्रह आदिवासी उन्नीस अप्रैल 1985 को पुलिस की गोलियों से भून दिए गए। मारे जाने वालों में पूर्व सांसद एंथनी मुर्मू भी थे। उस समय विधानसभा में यह आरोप लगाया गया था कि बांझी कांड की जांच करने वाले न्यायाधीश ने अपनी व्यक्तिगत सुविधाओं के लिए उस हत्याकांड को जायज ठहराने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है।
यह सब इस दौर में सहमति के निर्माण की पूरी प्रक्रिया को समझने की जरूरत पर बल दे रहा है। क्या कारण है कि बीजापुर के आदिवासी हत्याकांड के बाद कोई हचलच नहीं दिखाई दी? किसी राजनीतिक पार्टी ने इस विषय को आंदोलन का मुद््दा नहीं समझा। इतनी सारी हत्याओं के महीनों बाद कुछ छिटपुट सभाएं दिल्ली में हुर्इं। दूसरे आदिवासी इलाकों में भी कोई हलचल नहीं दिखी। राष्ट्रीय मीडिया के एक बेहद छोटे-से हिस्से ने इस हत्याकांड की वास्तविकता को सामने लाने की जरूरत समझी।
छत्तीसगढ़ में तो मीडिया एक पक्ष के अलावा कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुआ। क्या यह मान लिया गया है कि सारे आदिवासी हथियारबंद हो चुके हैं और उन्हें किसी भी तरह से खत्म करना जरूरी हो गया है? आखिर क्या कारण है कि आदिवासी इलाकों में लगातार ऐसी घटनाएं हो रही हैं और उन्हें लेकर सहमति का एक वातावरण बना हुआ है। आमिर खान के टीवी-शो पर मानवीयता जैसे उमड़ी चली आई, लेकिन आदिवासियों और श्रमिकों का संदर्भ आते ही अमानवीयता इस कदर कैसे हावी हो जाती है!
मानवीयता महज भावनाएं नहीं होती, उसका एक संदर्भ होता है। यही बात मानेसर में लागू होती है। क्या यह कम आश्चर्य का विषय है कि वहां एक साथ तीन हजार कामगारों के बारे में यह मान लिया गया है कि उन्होंने जिंदा जला कर मारुति-प्रबंधक की हत्या की है। घटना के तीन हफ्ते बाद तक मीडिया में किसी भी श्रमिक का पक्ष सामने नहीं आया है और सारे के सारे कामगार भूमिगत होने पर मजबूर हो गए हैं। क्या बीजापुर और मानेसर की घटना में कोई फर्क दिखाई दे रहा है?
अंग्रेजों के जाने के बाद, श्रमिकों को इस कदर भूमिगत होने पर मजबूर करने की यह सबसे बड़ी घटना है। श्रमिकों के प्रति प्रशासन के ऐसे व्यवहार को लेकर सहमति क्यों है और कहां से इसकी प्रक्रिया शुरू होती है? प्रबंधक की हत्या को भी दो पक्षों के बीच विवाद के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है। हिंसा किसी भी तरफ से हो निंदनीय है, और ऐसा हरगिज नहीं होना चाहिए। लेकिन क्या यह जानने की कोशिश नहीं होनी चाहिए कि श्रमिक असंतोष के मूल में क्या है? जिस तरह से देश के विभिन्न हिस्सों में आदिवासियों को लूटा, मारा और जेल के पीछे धकेला जा रहा है उसी तरह से श्रमिकों की मेहनत की लूट किस कदर बढ़ी है इसका अध्ययन किया जा सकता है।
बांझी में भी आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन पर कब्जे का ही मामला था। लेकिन शायद उस लूट के हिस्सेदारों का दायरा बेहद छोटा था। इस दायरे का विस्तार भूमंडलीकरण के जरिए किया गया है।
श्रमिक संगठनों को इसी दौर में अप्रासंगिक करार दे दिया गया। यानी एक तरफ हमलावरों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से संगठित होने की स्थितियां तैयार की गई हैं तो दूसरी तरफ हमले के शिकार लोगों में संगठन की चेतना को खत्म करने की लगातार कोशिश हुई है। तीखे हमलों के लिए टेढ़े तर्क ही काम आ सकते हैं। शोषण-उत्पीड़न के शिकार लोगों को संगठित होने और आंदोलन करने से नहीं रोका जा सकता, क्योंकि लोकतंत्र ने लगातार उत्पीड़ितों की चेतना को विकसित किया है।
लोकतंत्र में यह जरूरी है कि किसी भी विमर्श में सभी पक्षों को समान मौका दिया जाए। श्रमिक और आदिवासी अपनी बात न कह पाएं और दूसरे पक्ष द्वारा लगातार अपने हमलों को जायज ठहराने की कोशिश की जाए तो वहां अमर्यादित लोकतंत्र की स्थितियां तैयार होती हैं। आखिर कहां जाएं आदिवासी और श्रमिक? अमेरिका ने गलत प्रचार के आधार पर इराक पर हमले के बाद खुद को सही साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां हमलावरों को ताकत और संरक्षण का आश्वासन मिलता दिखाई देता है।
समाज जब सहमति और स्वीकृति की ही स्थिति में खुद को खड़ा कर देता है तो शासकों का काम बेहद आसान हो जाता है। यही हुआ है। असहमति और अस्वीकृति की आवाज पूरी तरह से क्षीण कर दी गई है। जहां भी ऐसी घटनाएं घट रही हैं जिनसे भविष्य की तस्वीर बनेगी, वहां केवल ताकतवरों का पक्ष सुना जा रहा है। आखिर इस दुनिया को सभी के रहने और जीने लायक बनाना है तो सभी पक्षों को सुनना होगा। इकतरफा सुनवाई से न्यायपूर्ण व्यवस्था कैसे बन सकती है!
No comments:
Post a Comment