Thursday, May 17, 2012

सुरक्षा के ताबूत में स्वार्थ की कील

http://visfot.com/home/index.php/permalink/6429.html

सुरक्षा के ताबूत में स्वार्थ की कील

By  
सुरक्षा के ताबूत में स्वार्थ की कील
Font size: Decrease font Enlarge font

राष्ट्रीय आतंकरोधी केंद्र यानी एनसीटीसी की स्थापना की कोशिश ठंडे बस्ते के हवाले हो गयी है. इस तरह कारगिल पर पाकिस्तानी घुसपैठ के बाद शुरू हुई केंद्र सरकार की वह कोशिश भी अनिश्चय को समर्पित हो गयी है जिसमें दावा किया गया था कि अब आतंकवाद को रोकने के लिए प्रभावी कार्रवाई की जायेगी और इंटेलिजेंस की व्यवस्था इतनी मज़बूत कर दी जायेगी कि आतंकी वारदात के पहले ही उसकी जानकारी मिल जाया करेगी. इसी योजना के हिसाब से गृह मंत्रालय ने हमले के बाद अमरीकी होमलैंड सेक्योरिटी विभाग की तरह का आतंकवाद विरोधी संगठन बनाने की योजना बनायी थी.

इस साल की शुरुआत में केंद्र सरकार ने गृह मंत्रालय के उस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी थी जिसके तहत नैशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर(एनसीटीसी) की स्थापना होनी थी. मूल योजना के अनुसार यह संगठन १ मार्च २०१२ से अपना काम करना शुरू कर देता. इसके लिए जारी किये गए सरकारी नोटिफिकेशन में बताया गया था एनसीटीसी एक बहुत ही शक्तिशाली पुलिस संगठन के रूप में काम करेगा. ऐसे प्रावधान किये गए थे आतंकवाद के मामलों की जांच एनसीटीसी के अफसर किसी भी राज्य में कर सकेगें. इन अफसरों को संदिग्ध आतंकवादियों को गिरफ्तार करने के अधिकार दिए गए थे. यह तलाशी भी ले सकेगें और इंटेलिजेंस इकठ्ठा करने के अधिकार भी इस संगठन के पास होगा. एनसीटीसी के पास नैशनल सेक्योरिटी गार्ड को भी तलब करने का अधिकार दिये जाने का प्रस्ताव है.

कारगिल में हुए संघर्ष में इंटेलिजेंस की नाकामी के बाद केंद्र सरकार ने एक ग्रुप आफ मिनिस्टर्स का गठन किया था जिसने तय किया कि एक ऐसे संगठन की स्थापना की जानी चाहिए जो आतंरिक और वाह्य सुरक्षा के मामलों की पूरी तरह से ज़िम्मेदारी ले सके.मंत्रियों के ग्रुप ने कहा था कि एक स्थायी संयुक्त टास्क फ़ोर्स बनायी जानी चाहिए जिसके पास एक ऐसा संगठन भी हो जो अंतरराज्यीय  इंटेलिजेंस इकट्ठा करने का काम भी करे. इसका काम राज्यों से स्वतंत्र रखने का प्रस्ताव था. इस सन्दर्भ में 6 दिसंबर 2009 को एक आदेश जारी कर दिया गया था. मुंबई में 26 नवम्बर 2008 में हुए आतंकवादी हमलों के बाद इस संगठन की ज़रुरत  बहुत ही शिद्दत से महसूस की गयी और 31 दिसम्बर 2008 के दिन केंद्र सरकार ने एक पत्र जारी करके इस मल्टी एजेंसी सेंटर के काम के बारे में विधिवत आदेश जारी कर दिया था. इस तरह का एक सेंटर बनाने के बारे में प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी सुझाव दिया था.

देश की आतंरिक सुरक्षा को चाक चौबंद करने के लिए एनसीटीसी जैसे संगठन की ज़रुरत चारों तरफ से महसूस की जा रही थी. अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ मनमोहन सिंह की सरकारें इस के बारे में विचार करती रही थीं. लगता है कि केंद्र सरकार से गलती वहीं हो गयी जब एनसीटीसी को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन रख दिया गया. इसका मुखिया इंटेलिजेंस ब्यूरो के अतिरिक्त निदेशक रैंक का एक अधिकारी बनाना तय किया गया था.एनसीटीसी के गठन का नोटिफिकेशन 3 फरवरी को जारी किया गया था. उसके बाद से ही विरोध शुरू हो गया. सरकार को इस पर पुनर्विचार के लिए 5 मई को मुख्यमंत्रियों की एक बैठक बुलानी पड़ी. बैठक के बाद जो बात सबसे ज्यादा बार चर्चा में आई वह एनसीटीसी को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन रखने को लेकर थी. लगता है कि एनसीटीसी को केंद्र सरकार को इंटेलिजेंस ब्यूरो से अलग करना ही पडेगा. एकाध को छोड़कर सभी मुख्यमंत्रियों ने इस बात पर सहमति जताई कि आतंकवाद से लड़ना बहुत ज़रूरी है और मौजूदा तैयारी के आगे जाकर उस के बारे में कुछ किया जाना चाहिए. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एनसीटीसी के गठन का ही विरोध किया. केंद्र सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि आतंकवाद को रोकने के लिए सामान्य पुलिस की ज़रूरत नहीं होती . उसके लिए बहुत की  कुशल संगठन की ज़रुरत होती है और एन सी टी सी वही संगठन है.

मुख्यमंत्रियों के दबाव के बाद केंद्र सरकार को एनसीटीसी के स्वरूप में कुछ परिवर्तन करने पड़ेगें. उसकी कंट्रोल की व्यवस्था में तो कुछ ढील देने को तैयार है. गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि आतंकवाद कोई सीमा नहीं मानता इसलिए  उसको किसी एक राज्य की सीमा में बांधने का कोई मतलब नहीं है. आतंकवाद अब कई रास्तों से आता है. समुद्र, आसमान, ज़मीन और आर्थिक आतंकवाद के बारे में तो सबको मालूम है लेकिन अब साइबर स्पेस में भी आतंकवाद है. उसको रोकना  किसी भी देश की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए. इसलिए अब तो हर तरह की टेक्नालोजी का इस्तेमाल करके हमें अपने सरकारी दस्तावेजों, और बैंकिंग क्षेत्र की सुरक्षा का बंदोबस्त करना चाहिये. उन्होंने कहा कि हमारे देश की समुद्री सीमा साढ़े सात हज़ार  किलोमीटर है जबकि १५ हज़ार किलोमीटर से भी ज्यादा अन्तर राष्ट्रीय बार्डर है. आतंक का मुख्य श्रोत वही है. उसको कंट्रोल करने में केंद्र सरकार की ही सबसे कारगर भूमिका हो सकती है उन्होंने कहा कि इस बात की चिंता करने के ज़रुरत नहीं  कि केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार छीन लेगी. बल्कि ज्यों ज्यों राज्यों के  आतंक से लड़ने का तंत्र मज़बूत होता जायेगा. केंद्र सरकार अपने आपको धीरे धीरे उस से अलग कर लेगी.

ज़ाहिर है कि मौजूदा पुलिस व्यवस्था से आतंक को कंट्रोल करना नामुमकिन होगा, अब तक ज़्यादातर मामलों में वारदात के बाद ही कार्रवाई होती रही है. लेकिन यह सच्चाई कि अगर अपनी पुलिस को वारदात के पहले इंटेलिजेंस की सही जानकारी मिल जाए, पुलिस की सही लीडरशिप हो और राजनीतिक सपोर्ट हो तो आतंकवाद पर हर हाल में काबू पाया जा सकता है. सीधी पुलिस कार्रवाई में कई बार एक्शन में सफलता के बाद पुलिस को पापड़ बेलने पड़ते हैं और मानवाधिकार आयोग वगैरह  के चक्कर लगाने पड़ते हैं. पंजाब में आतंकवाद के खात्मे में सीधी पुलिस कार्रवाई का बड़ा योगदान है. लेकिन अब सुनने में आ रहा है कि राजनीतिक कारणों से उस दौर के आतंकवादी लोग  हीरो के रूप में समानित किये जा रहे हैं जबकि पुलिस वाले मानवाधिकार के चक्कर काट रहे हैं. इसी तरह की एक  घटना उत्तर प्रदेश की भी है. बिहार में पाँव जमा लेने के बाद माओवादियों और अन्य नक्सलवादी संगठनों ने उत्तर प्रदेश को निशाना बनाया तो मिर्ज़ापुर से काम शुरू किया.

लेकिन वहां उन दिनों एक ऐसा पुलिस अफसर था जिसने अपने मातहतों को प्रेरित किया और नक्सलवाद को शुरू होने से पहले ही दफ़न करने की योजना बनायी. बताते हैं कि राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री राज नाथ सिंह से जब आतंकवाद की दस्तक के बारे में बताया गया तो उन्होंने वाराणसी के आई जी से कहा कि आप संविधान के अनुसार अपना काम कीजिये, मैं आपको पूरी राजनीतिक बैकिंग दूंगा. नक्सल्वादियों के किसी ठिकाने का जब पुलिस को पता लगा तो उसने  इलाके के लोगों को भरोसे  में लेकर खुले आम हमला बोल दिया . दिन भर इनकाउंटर चला, कुछ लोग मारे गए. इलाके के लोग सब कुछ देखते रहे लेकिन आतंकवादियों को सरकार की मंशा का पता चल गया और उतर प्रदेश में नक्सली आतंकवाद की शुरुआत ही नहीं हो पायी.  हाँ यह भी सच है कि बाद में मिर्जापुर के मडिहान में हुई इस वारदात की हर तरह से जांच कराई गयी. आठ साल तक चली जांच के बाद एक्शन में शामिल पुलिस वालों को  जाँच से निजात मिली लेकिन यह भी तय है कि सही राजनीतिक और पुलिस  लीडरशिप के कारण दिग्भ्रमित नक्सली आतंकवादी काबू में किये जा सके. 

लेकिन इस तरह की मिसालें बहुत कम हैं. कारगिल की घुसपैठ और संसद पर आतंकवादी हमले के बाद यह तय है कि सामान्य पुलिस की व्यवस्था के रास्ते आतंकवाद का मुकाबला नहीं किया जा सकता. अगर राज्यों के मुख्य मंत्रियों को आई बी की दखलंदाजी नहीं मंज़ूर है तो सरकार को कोई और तरीका निकालना ही पडेगा लेकिन यह ज़रूरी है कि एक विशेषज्ञ पुलिस फ़ोर्स के बिना आधुनिकतम टेक्नालोजी और हथियारों से लैस आतंकवादियों को निष्क्रिय नहीं किया जा सकता.

No comments:

Post a Comment