Friday, July 29, 2016

सेगुन का पौधा बनकर जिंदा हैं महाश्वेता दीदी,आदिवासियों ने उन्हें जिंदा रखा है पलाश विश्वास

सेगुन का पौधा बनकर जिंदा हैं महाश्वेता दीदी,आदिवासियों ने उन्हें जिंदा रखा है
पलाश विश्वास
चुनी कोटाल,रोहित वेमुला से पहले जिस लोधा शबर छात्रा की संस्थागत हत्या हुई


महशवेता दी की आदिवासी जीवन पर केंद्रित पत्रिका बर्तिका

कोलकाता के केवड़ातल्ला श्मसान घाट पर  जिस वक्त महाश्वेतादी की राजकीय अंत्येष्टि हो रही थी,उस वक्त आदिवासी गांव कृदा में चक्का नदी के किनारे श्मशान घाट पर लोधा शबर आदिवासियों ने दीदी की याद में सेगुन का पौधा रोप दिया ताकि आंधी तूफां में महाश्वेतादी उऩकी हिफाजत सेगुन वृक्ष बनकर कर सकें।

माफ कीजिये,आज का रोजनामचा भी महाश्वेता दी को समर्पित है।अंतिम दर्शन या अंति प्रणाम नहीं कर सका तो क्या हुआ,1978-79 से लगातार जिस रचनाधर्मिता का सबक वे लगातार मुझे सिखाती रही हैं और 1981 से उनके साथ जो संवाद का सिलसिला रहा है,उसकी चर्चा करके अपनी तरह से उन्हें मुझे श्रद्धांजलि देने की इजाजत जरुर दें।

80-81 में जब दैनिक आवाज चार पेज से छह पेज का सफर तय कर रहा था और झारखंडआंदोलन निर्णायक दौर में था,तब दैनिक आवाज के रविवारीय परिशिष्ट में महाश्वेता दी के रचनासंसार पर केंद्रित मेरे स्तंभ पर लोग यही शिकायत करते थे कि महाश्वेता से गंधा दिया है अखबार।

लगता है कि करीब पैंतीस साल बाद महाश्वेता दी की भारतीय पहचान इतनी तो बन गयी होगी कि अब ऐसा कहने की कोई गुंजाइश नहीं है।

रचनाधर्मिता के लिए सामाजिक यथार्थ की बात तो बहुत होती रही है और नवारुण भट्टाचार्य के लिए रचनाधर्मिता बदलाव के लिए गुरिला युद्ध है और उनके लिखे हर शब्द के पीछे बाकायदा मुकम्मल गुरिल्ला युद्ध की तैयारी है।

मुझे शायद ही कोई रचनाकार मानें लेकिन भारत के तमाम दिग्गज साहित्यकारों से हमारे कमोबेश संबंध और संवाद रहे हैं तो साहित्य,भाषा विज्ञान और सौंदर्यशास्त्र का विद्यार्थी भी रहा हूं।शास्त्रीयसाहित्यपढ़ने में ही छात्र जीवन रीत गया और तथाकथित कामयाबी के लिए जरुरी तैयारी मैंने कभी नहीं की।इस लिहाज से मैंने महाश्वेता देवी के अलावा दुनियाभर मे किसी और रचनाकार को नहीं देखा जिनकी प्राथमिकता रचनाधर्मिता के बदले सामाजिक सक्रियता हो।

लोधा शबर जनजाति से महाश्वेता दी के संबंधों पर खास चर्चा का मकसद यही है कि यह चर्चा जरुर होनी चाहिए कि रचनाकार को किस हद तक सामाजिक सक्रियता को तरजीह देना चाहिए।होता तो यही है कि रचनाधर्मिता के बहाने सामाजिक निष्क्रियता ही अमूमन रचनाकार का चरित्र बन जाता है और उसके कालजयी शास्त्रीयरचनाकर्म का मनुष्यता,सभ्यता और प्रकृति से कोई संबंध होता नहीं है।इसी लिए आज मीडिया और तमाम माध्यमों और विधाओं में समाज अनुपस्थित है तो सामाजिक यथारत से रचनाकारों का लेना देना नही हैं और न ही माध्यमों और विधाओं में हकीकत का कोई आईना है।रचनाकार की सामाजिक सक्रियता अघोषित पर निषिद्ध है हालांकि विचारदारा की जुगाली पर कोई निषेध नहीं है।सारा विभ्रम इसीको लेकर है।

कल जंगल महल,आदिवासी भूगोल और महाअरण्य मां की राजकीय अंत्येष्टि संपन्न हो गयी ह।जल जंगल जमीन से बेदखली के शिकंजे में फंसे आदिवासियों पर सैन्य राष्ट्र के लगातार हमलों के बीच उन्हें गोलियों से सलामी दी गयी,जिन गोलियों से छलनी चलनी हुआ जाता है समूचा आदिवासी भूगोल।आदिवासी की तरह जीनेवाली भारत की महान लेखिका का यह राजकीय सम्मान भव्य जरुर है।

जनसत्ता में हमारे सहयोगी रहे चित्रकार सुमित गुहा ने सिलसिलेवार तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट की है तो खबरों में वे दृश्य लाइव हैं।महानगरीय भद्रलोक दुनिया की चकाचौंध के दायरे से बाहर रोज रोज मरने वाले मारे जाने वाले आदिवासी भूगोल का कोई चेहरा इस राजकीय आयोजन में नहीं है।वे अपने आदिवासी परंपराओं के मताबिक अपनी मां का अंतिम संस्कार करने जा रहे हैं।

इसकी पहल शबर जनजाति के आदिवासी जंगल महल में कर रहे हैं।जिस जंगल महल में आदिवासी उत्पीड़न के खिलाफ वाम शासन के अंत के लिए परिवर्तनपंथी आंदोलन का चेहरा बनकर ममता बनर्जी के जरिये सत्ता और सत्ता वर्ग के साथ नत्थी हो गयी हमारे समय की सर्वश्रेष्ठ रचना धर्मी सामाजिक कार्यकर्ता।

गौरतलब है कि झारखंड और बंगाल में शबर जनजाति की आबादी है और वे लोग भारत में सबसे प्राचीन गुफा चित्र और हां,पुस्तकचित्र बनाने वाले लोग हैं।1757 में पलाशी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजदौल्ला की निर्णायक हार के बाद झारखंड,बंगाल और ओड़ीशा के जंगल महल में किसान आदिवासी विद्रोह का सिलसिला चुआड़ विद्रोह के साथ शुरु हुआ,जो भारत की आजादी के बादअब भी किसी न किसी रुप में जारी है।

महाश्वेतादेवी के रचना विषय का मुख्य संसाधन और स्रोत है।

उसी चुआड़ विद्रोह के असम और पूर्वोत्तर से लेकर बंगाल बिहार ओड़ीशा,महाराष्ट्र और आंध्र,फिर समूचे मध्य भारत और राजस्थान गुजरात तक भारी पैमाने पर अछूत ,शूद्र और आदिवासी राजा रजवाड़े राज कर रहे थे,जिन्होंने विदेशी हुकूमत के खिलाफ लगातार संघर्ष जारी रखा।चुआड़ विद्रोह के दौरान ही इन तमाम आदिवासियों के अपराधी तमगा दे दिया गया।पंचकोट और तमाम गढ़ों के राजवंशजों को चोर चुहाड़ साबित करके उनके विद्रोह को जनविद्रोह और स्वतंत्रतता संग्राम न बनने देने के मकसद से ईस्टइंडिया कंपनी के किलाफ पहले आदिवासी विद्रोह को चुआड़ विद्रोह बताया गया।यही नहीं,बागी जनजातियों को क्रिमिनल मार्क कर दिया गया और आजादी के बाद भी ये जनजाति नोटिफाइड अपराधी बतौर चिन्हित हैं।लोधा और शबर जनजातियां इसीलिए सराकीर रिकार्ड में अपराधी हैं आज भी।

चुनी कोटाल का किस्सा फिर चर्चा में है रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद।चुनी कोटल लोधा शबर जनजाति की छात्रा थी,जिनकी प्रगतिशील वाम जमाने में पहली संस्थागत हत्या हुई और तब रोहित वेमुला की हत्या के विरुद्ध जैसा आंदोलन हो रहा है,वैसा कोई आंदोलन हुआ नहीं है।चुनी कोटाल की लड़ाई अकेली महाश्वेता दी लड़ती रही हैं।

महाश्वेता दी ने इन्ही शबर जनजाति के लोगं के लिए पश्चिम बंग लोधा शबर कल्याण समिति का गठन किया था और आदिवासियों ने उन्हें ही इस समिति का कार्यकारी अध्यक्ष चुना था।समिति का मख्यालय पुरुलिया के राजनौआगढ़ में है।

गौरतलब है कि 1083 मेंपुरुलिया जिले के 164 शबर गांवों और टोलों को एकजुट करने के मकसद से चुआड़विद्रोह के सिलिसिले में अग्रेजी हुकूमत के लिए सरदर्द बने पंचकोट राजवंस के उत्तराधिकारी गोपीबल्लभ सिंहदेव पुरुलिया एक नंबर ब्लाक के मालडी गांव में शबर उन्नयन परिषद चला रहे थे और उन्होंने ही शबर मेला का आयोजन शुरु किया।यह इसलिए खास बात है कि आदिवासियों के लिए निरंतर सक्रियता का महाश्वेता दी का मक्तांचल यही शबर भूमि और वहां आयोजित होने वाला शबर मेला है।राजनौआगढ़ में बने लोधा शबर कल्याण समिति के मुख्यालयका नाम अब महाश्वेता भवन है,जो महाश्वेता दी की सामाजिक सक्रियता का मुख्यालय भी रहा है,ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वहीं से वे हर शबर लोधा गांव जाकर उनके घर गर के दुःख तकलीफों,रोजमर्रे की समस्याओं की सिलसिलेवार जानकारी हासिल करती रही है।
1981 से लगातार मेरे पास दीदी की पत्रिका बर्तिका के अंक आते रहे हैं।उस पत्रिका के लिए लिखना एकदम हम जैसे खालिस लेखकों के लिए असंबव ता क्योंकि वह पत्रिका आदिवासी भूगोल की हर समस्या को वहां की जमीन पर खड़े होकर जिलेवार,गांव तहसील मुताबिक सर्वे के साथ संबोधित करती रही है।जैसे बर्तिका के लिए लिखना बिना आदिवासी रोजमर्रे कीजिंदगी से जुड़े असंभव था, मसमझ लीजिये कि महास्वेता देवी की तगह लिखना आम लेखकों के लिए उतना ही असंभव है।

बेमौत मारी गयी चुनी कोटाल की लड़ाई महाश्वेता दी लगातार लड़ती रही।इसीतरह आदिवासी भूगोल में उनके हक हकूक की कानूनी लड़ाई में भी वे लगातार सक्रिय रही हैं।मसलन डकैती के फर्जी मामले में केंदा थाने में लोधा शबर युवक बुधन की पुलुस ने पीट पीटकर हत्या कर दी तो इसके खिलाफ दीदी की लड़ाई कानूनी थी तो लोधा शबर आदिवासियों के लिए सरकारी अनुदान में बंदरबांट के खिलाफ उन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा भी खटखटाकर देख लिया।

शबर आदवासियों के साथ दीदी के रिश्ते को समझने के लिए शायद यह काफी होगा कि शबर मेले के संस्थापरक आयोजक वयोवृद्ध गोपीबल्लभ सिंह देव फिलहाल बीमार चल रहे हैं और उन्हें सदमा न लगे ,इसलिए उन्हें महाश्वेतादी के महाप्रयाण की खबर दी नहीं गयी है।लगभग तीस साल से लगातार दीदी वहां आती जाती रही है जैसे हम लोग घर फिर फिर लौटते हैं।मैगसेसे पुरस्कार में मिले दस लाख रुपये महाश्वेता दी ने इसी लोधा शबर कल्याण परिषद को दे दिये और हर साल इसी शबर मेले के मार्पत बाकी देश से राशन पानी,कपड़े लत्ते,दवा,नकदी वे आदिवासियों तक पहुंचाती रही हैं।
दीदी की अंत्येष्टि पर सुमित जनसत्ता में हमारे सहकर्मी चित्रकार समित गुहा ने अपने फेसबुक वाल पर जो तस्वीरें पोस्ट की हैंः

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Thursday, July 28, 2016

उन्होंने ही भारतभर के संस्कृतिकर्मियों को आदिवासी किसानों के हकूक की विरासत और जल जंगल जमीन से जोड़ा जंगल के दावेदार महाश्वेता देवी,महाअरण्य की मां,जनांदोलनों की मां और हजार चौरासवीं की मां महाश्वेता दी हमारे लिए जनप्रतिबद्धता का मोर्चा छोड़ गयीं पलाश विश्वास



उन्होंने ही भारतभर के संस्कृतिकर्मियों को आदिवासी किसानों के हकूक की विरासत और जल जंगल जमीन से जोड़ा
जंगल के दावेदार महाश्वेता देवी,महाअरण्य की मां,जनांदोलनों की मां और हजार चौरासवीं की मां महाश्वेता दी हमारे लिए जनप्रतिबद्धता का मोर्चा छोड़ गयीं
पलाश विश्वास
जंगल के दावेदार महाश्वेता देवी,महाअरण्य की मां,जनांदोलनों की मां और हजार चौरासवीं की मां महाश्वेता दी चली गयीं।भारतीय जनप्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मियों का दशकों से मार्ग दर्शन करने वाली,भारत के किसानों और आदिवासियों क हक हकूक की लड़ाई का इतिहास साहित्य के जरिये आम जनता तक पहुंचाने वाली लेखिका महाश्वेता देवी चली गयीं।हम सबकी अति प्रिय लेखिका और समाजसेविका महाश्‍वेता देवी ने गुरुवार को अंतिम सांस ली। उन्‍हें 23 जुलाई को एक मेजर हार्ट अटैक आया था।

पिछले दो माह से उनका इलाज कोलकाता के बेले वू क्‍लीनिक में चल रहा था। डॉक्‍टर्स ने कहा कि उन्‍हें बढ़ती उम्र से जुड़ी बीमारियों की वजह से एडमिट कराया गया था। ब्‍लड इंफेक्‍शन और किडनी फेल होने जाने की वजह से उनकी हालत दिन पर दिन बिगड़ती चली गई।

14 जनवरी, 1926 को महाश्वेता देवी का जन्म अविभाजित भारत के ढाका में हुआ था। इनके पिता, जिनका नाम मनीष घटक था, वे एक कवि और उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध थे। महाश्वेता जी की माता धारीत्री देवी भी एक लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। महाश्वेता देवी ने अपनी स्कूली शिक्षा ढाका में ही प्राप्त की। भारत के विभाजन के समय किशोर अवस्था में ही इनका परिवार पश्चिम बंगाल में आकर रहने लगा था। इसके उपरांत इन्होंने 'विश्वभारती विश्वविद्यालय', शांतिनिकेतन से बी.ए. अंग्रेज़ी विषय के साथ किया। इसके बाद 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' से एम.ए. भी अंग्रेज़ी में किया। वे कालेज में अंग्रेजी की प्राध्यापिका रही हैं।

90 साल की उम्र में आज उन्होंने कोलकाता के अस्पताल में अंतिम सांस ली। उन्हें गत 22 मई को यहां के बेल व्यू नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया था। नर्सिंग होम के सीईओ पी. टंडन ने बताया कि उनके शरीर के कई महत्वपूर्ण अंगों ने काम करना बंद कर दिया था और आज दिल का दौरा पड़ने के बाद अपराह्न 3 बजकर 16 मिनट पर उनका निधन हो गया। टंडन ने कहा, 'उनकी हालत अपराह्न तीन बजे से ही बिगड़ने लगी थी। हमने हरसंभव कोशिश की लेकिन उनकी तबीयत बिगड़ती चली गई और 3.16 बजे उनका निधन हो गया।'

हमारे लिए यह विशेषाधिकार है कि उनके कद को कहीं से भी छूने में असमर्थ मुझे आज उनके अवसान के बाद उन्हें अपनी पहाड़ की मेहनतकश जुझारु महिलाओं से लेकर कुमांयूनी गढ़वाली  पढ़ी लिखी महिलाओं को जैसे मैं जनम से दी कहता रहा हूं,उन्हे उनके ना होने के बाद भी दी कह लेता हूं और हमारी दो कौड़ी की औकात के बावजूद कोई मुझे रोकता टोकता नहीं है।

धनबाद में कोलियरी कामगार यूनियन की तरफ से प्रेमचंद जयंती मनायी जी रही थी 1981 में और उस वक्त मैं वहां से प्रकाशित दैनिक आवाज में रविवारीय परिशिष्ट के जरिये महाश्वेती देवी के रचना संसार को आम आदिवासियों तक अनूदित करके संदर्भ प्रसंग और व्याख्या समेत पहुंचा रहा था।कोलियरी कामगार यूनियन के लोगों ने मुख्य अतिथि के तौर पर किसे बुलाया जाये,ऐसा पूछा तो कवि मदन कश्यप और मैंने महाश्वेता देवी का नाम सुझाया।तब झारखंड आंदोलन में कामरेड एके राय,शिबू सोरेन और विनोद बिहारी महतो साथ साथ थे और धनबाद से सांसद थे एक राय।

संजोग से कार्यक्रम से ऐन पहले मदन कश्यप वैशाली अपने घर चले गये और प्रेमचंद की भाषा शैली पर मुझे बोलना पड़ा।

बहुत भारी सभा थी और महाश्वेता देवी बोलने लगीं तो सीधे कह दिया कि भाषा शैली मैं नहीं समझती।मैं तो कथ्य जानती हूं,विषयवस्तु जानती हू और प्रतिबद्धता जानती हूं।नैनीताल में गिरदा भी ऐसा ही कहा करते थे लेकिन वे हमेशा कथ्य को लोक से जोड़ते थे और कमोबेश इसका असर हम सभी पर रहा है।

महाश्वेता दी से उस कार्यक्रम में ही मेरी पहली मुलाकात हुई।तब वे पति से अलग होकर बालीगंज रेलवे स्टेशनके पास रहती थींं।अकेले ही।हम धनबाद से वहां आते जाते रहे हैं।भारत के किसानों और आदिवासियों के हकूक की लड़ाई से मेरी तरह न जाने भारत के विभिन्न भाषाओं में सक्रिय कितने ही छोटे बड़े प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित गुमनाम संस्कृतिकर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को उन्होंने जोड़ा।

90 साल की महाश्वेतादेवी  को साहित्‍य अकादमी अवार्ड, पद्म विभूषण, ज्ञानपीठ और मैग्‍सेसे अवार्ड जैसे ख्‍यातिप्राप्‍त पुरस्‍कारों से सम्‍मानित किया जा चुका ह‍ै।लेकिन बांग्ला साहित्य में उनकी चर्चा बाकी साहित्यकारों की तरह होती नहीं है।उनके लिखे को शास्त्रीय साहित्य भी लोग नहीं मानते।

जैसे फिल्कार मृणाल सेन की फिल्मों को श्वेत श्याम डाक्युमेंटशेन समझा जाता है और उन्हें सत्यजीत राय या मृणाल सेन की श्रेणी में रखा नहीं जाता,उसीतरह बांग्ला कथासाहित्य में महाश्वेता देवी और माणिक बंदोपाध्याय के बीच सत्तर और अस्सी के दशक में सामाजिक यथार्थ के जनप्रतिबद्ध लेखक कोई और न होने के बावजूद उन्हें ताराशंकर या माणिक बंद्योपाध्याय की श्रेणी में रखा नहीं जाता।क्योंकि उनके साहित्य में  कथा नहीं के बराबर है।

जो है वह इतिहास है या फिर इतिहासबोध की दृष्टि से कठोर निर्मम सामाजिक यथार्थ औऱ हक हकूक के  लिए आदिवासियों और किसानों के हकूक की कभी न थमने वाली लड़ाई।वे सचमुच भाषा,शैली और सौंदर्यबोध की परवाह नहीं करती थीं।

भाषा बंधन के संपादकीय में उन्होंने मुझे,कृपाशंकर चौबे,अरविंद चतुर्वेद के साथ साथ मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल को भी रखा था औरवे सीधे कहती थी कि मुझे बांग्ला से ज्यादा हिंदी में पढ़ा चाता है और इसलिए मैं भारतीय साहित्यकार हूं।बंगाली साहित्यकार नहीं।ठीक उसी तर्ज पर वे मुझे कुमायूंनी बंगाली कहा करती थीं।यह भी संजोग है कि अमेरिका से सावधान पर उन्होंने लिखा और मुझे साम्राज्यवाद से लड़नेवाला लेखक बताया,जो मेरा अनिवार्य कार्यभार बन गया।

वे हम सभी के बारे में सिलसिलेवार जानकारी रखती थीं।मसलन उन्होंने वैकल्पिक मीडिया के हमारे सिपाहसालार आनंद स्वरुप वर्मा पर भी अपने स्तंभ में लिखा।जबकि हिंदी के साहित्यकारों और आलोचकों ने हमें कोई भाव नहीं दिया।
वे हवा हवाई रचनाक्रम करती नहीं थीं और जमीन पर उनके पांव हमेशा टिके रहते थे और गर कथा विषय पर उनका भयंकर किस्म का शोध होता था।हमारे जनम के आसापास के समय़ उन्होंने झांसीर रानी उपन्यास लिखा था।उस वक्त बुंदेल खंड उनने अकेले ही छान डाला था।

हमने उन्हें जैसे इप्टा के मंचस्थ नवान्न के गीत गुनगुनाते सुना है वैसे ही हमने उन्हें बुंदेलखंडी गीत भी मस्ती से गाते हुए सुना है।

फिरबी आदिवासियों पर लिखने का मतलब उनके लिए आदिवासी इलाकों पर शोध करके लिखना हरगिज नहीं था।आदिवासी जीवन को मुख्यधारा से अलग विचित्र ढंग से चित्रित करने के वे बेहद सख्त खिलाफ थीं।वे आदिवासियों को भारत के बाकी किसानों से अलग थलग करने के भी खिलाफ रही हैं।

उन्होंने पलामू में करीब दस साल तक जमकर बंधुआ आदिवासियों के साथ काम किया और वे देशभर के आदिवासी परिवारों से जुड़ी रही हैं परिजन की तरह।

जंगल महल में लगातार वे आदिवासियों के लिए मदद राशन पानी कपड़े लत्ते लेकर आती जाती रही हैं।उनकी शोध पत्रिका बर्तिका में आदिवासी इलाकों पर लागातार सर्वे कराये जाते रहे,तथयप्रकाशित किये जाते रहे,कार्यकर्ताओं का नेटवर्क बनाया जाता रहा ,जमीन का हिसाब किताब जोड़ा जाता रहा।उनके साथ अंतिम समय तक परिजनों के बाजाय आदिवासी ही परिजन बने रहे।

भाषा बंधन के मार्फत ही बहुत बाद में 2001-2002 के आसापास नवारुण दा से हमारे अंतरंग संबंध बने।भाषा शैली की परवाह न करने वाली भाषा बंधन की प्रधान संपादक महाश्वेता दी वर्तनी में किसी भी चूक के लिए नवारुण के साथ हम सबकी खबर लेती रही हैं।भाषा शैली की परवाह न करने वाली महाश्वेता दी नवारुण के बारे में कहा करती थी कि ऐसा खच्चर लेखक कोई दूसरा है नहीं जो फालतू एक मात्रा तक लिखता नहीं है।एकदम दो टुक शब्दों में सटीक लिखता है औरे वे इसे नवारुण की आब्जर्वेशन और इस्पाती दृष्टि  की खूबी मानती रही हैं।

ऋत्विक घटक उनके चाचा थे।नवारुण बेटा।विजन भट्टाचार्य पति और  पिता  मनीश घटक बांग्ला के बेहद प्रतिष्ठित गद्यलेखक।

नवारुण के साहित्य के निरंतर  गुरिल्ला युद्ध,बिजन भट्टाचार्य का समृद्ध रंगकर्म, ऋत्विक की लोक में गहरी पैठी सिनेकार दृष्टि और गद्य में मनीश घटक  की वस्तुनिष्ठता के घराने से महाश्वेता दी का रचनासंसार रंगीन फिल्मों के मुकाबवले श्वेत श्याम खालिस यथार्थ जैसा है।जो साहित्य कम,इतिहास ज्यादा है।जनता का, जनसंघर्षों का इतिहास निंरकुश सत्ता के किलाफ।सामंती औपनिवेशिक साम्राज्यवादी मुक्तबाजारी व्यवस्था के खिलाफ।

अबाध पूंजी प्रवाह के लिए पूंजीवाद के राजमार्ग पर दौड़ने वाले कामरेडों के खिलाफ अंधाधुंथ शहरीकरण और औद्योगीकरण के खिलाफ,पूंजी के खिलाफ जनविद्रोह के साथ थीं वे और विचारधारा वगैरह वगैरह के बहाने वामपंथी सत्ता के खिलाफ खड़ा होने में उन्होंने कोई हिचकिचाहट नहीं दिखायी क्योंकि जलजंगल जमीन की लड़ाई उनके लिए विचारधारा से ज्यादा जरुरी चीज रही है।

उन्हें पढ़ते हुए हमेशा लगता रहा है कि जैसे तालस्ताय को पढ़ रहे हैं लेकिन महाश्वेता दी तालस्ताय की तरह दार्शनिक नहीं थींं।

उन्हें पढ़ते हुए विक्टर ह्युगो का फ्रांसीसी क्रांति पर लिखा ला मिजरेबल्स की याद आती रही।लेकिन भारतीय राजनीति,साहित्य और संस्कृति में जैसे विचारधारा, दर्शन,आंदोलन का आयात होता रहा है,वैसा महाश्वेता का साहित्य और जीवन हरगिज नहीं है।उन्होंने कभी फैशन,ट्रेंड,बाजार और वैश्विक इशारों के मुताबिक नहीं लिखा।

उन्होंने हमेशा साहित्य और रचनाधर्मिता को कला के लिएकला मानने से इंकार किया है और इसके बदले रचनाधर्मिता का मतलब उनके लिए सामाजिक सक्रियता और जुनून की हद तक जनप्रतिबद्धता है।बीरसा मुंडा और सिधु कानू की तरह।

चोट्टि मुंडा की तीर की तऱह धारदार रहा है उनका सामाजिक यथार्थ।वे जिंदगीभर सैन्य राष्ट्र के साथ मुठभेड़ में मारे जाने वाले नागरिकों की लाशों को एक मां की संवेदना से देखा और उन तमाम मुठभेड़ों के खिलाफ साहित्य में एफआईआर दर्ज कराती रहीं।

तसलिमा का लज्जा लिखकर बांग्लादेश से निर्वासन के बाद से महाश्वेता दी की उनसे भारी अंतरंगता रही है।वे अक्सर कहा करती थी बांग्लादेश के मैमनसिंह जैसे इलाके से आयी यह लड़की देश से बेदखल होकर कैसे विदेशों में विदेशी भाषाओं और तकनीक के साथ बिना समझौता किये अपने कहे और लिखे पर कायम है.यह हैरतअंगेज है।

फिरभी किसी भी कोण से महाश्वेता दी नारीवादी नहीं हैं।उनके मुताबिक आदिवासी समाज में स्त्री को समान अधिकार मिले हुए हैं।उनके हकहकूक की लड़ाई किसान मजदूरों के लड़ाई से कतई अलहदा नहीं है।

सामंतवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध किसानों और आदिवासियों के संघर्ष में ही पितृसत्ता के खिलाफ वे अपना विरोध दर्ज कराती रही हैं।

मसलन हजार चुरासीर मां भी पितृसत्ता  के खिलाफ बेहद संवेदनशील वक्तव्य रहा है।वे साहित्य और संस्कृति के मामेले में समग्र दृष्टि पर जोर देती थी और उनके यथार्थबोध कहीं से आयातित न होकर खालिसइतिहास बोध का विज्ञान रहा है।

मैंने सबसे पहले हजार चुरासी की मां पढ़ी थी।वहां जनसंघर्षों का जुनून जो था सो था,एक मां की पीड़ा का चरमोत्कर्ष सारे वजूद को झनझना देने वाला है।

महाश्वेतादी कहा करती थीं कि नवारुण के साथियों और मित्रों को करीब सेदेखकर उनने हाजार चुरासी लिखा तो उसमें पंक्ति दर पंक्ति हमें नवारुण दा नजर आते रहे हैं।विडंबना यह है कि नवारुण दा उनके एकदम करीब रहते थे लेकिन पति के साथ अलगाव के बाद मां बेटे एकसाथ नहीं रहते थे।हजार चुरासी की मां की यंत्रणा सांस तक जीती रही हैं महाश्वेता दी और किसी को इसका अहसास होने नहीं दिया।

गोल्फ ग्रीन में नवारुणदा के घर में खाने की मेज पर बैठकर उनके तमाम दिग्गज परिजनों के साथ परिचय के सिलसिले में बेहद अचरज होता था कि बेखटके सबके  सामने खैनी खाने वाली ,बीड़ी  पीनेवाली महाश्वेतादी ने अपनी कुलीन पृष्ठभूमि से किस हद तक खुद को डीक्लास कर लिया था।

इस हद तक कि वे सिर्फ आदिवासी और किसानों के लिए लिखती नहीं थी बल्कि उनकी जिंदगी  भी जीती रही हैं।अपनों के साथ संबंधों की बलि देकर भी उन्होंने रचनाधर्मिता का नया मोर्चा बनाने का अहम काम किया।वह मोर्चा दरअसल मह सबका मोर्चा है।

आजकल टीवी पर शोर मचाने वाले पैनलधर्मी चीखते हुए समाचार मैं देखता नहीं हूं।क्योंकि वहां सूचनाएं बेहद विकृत विज्ञापनी सत्तागंधी होते हैं।

महाश्वेता दी के निधन की खबर नेट से ही मिली।जबसे वे बीमार पड़ी हैं,सविता उनकी रोज खबर लेती रही हैं।इस वक्त जब मैं लिख रहा हूं वे अपनी मंडली के साथ अन्यत्र बिजी हैं।महाश्वेता दी से मिलने की बात वे पिछले वर्षों में बार बार करती रही हैं लेकिन नंदीग्राम सिंगुर आंदोलन के बाद वे जिस तरह सत्तादल के असर में रही हैं,हमारे लिए उनसे मिलना संभव नहीं है।

आंतिम वर्षों में नवारुण दा का भी उनसे अलगाव इन्हीं कारणों से हो गया था।नवारुण दा गोल्फग्रीने में उनसे कुछ सौ मीटर की दूरी पर कैंसर से जूझते हुए चले गये।

एकदम हजार चुरासी की मां तरह महाश्वेता दी आखिरी वक्त भी अपने बेटे के साथ नहीं थीं।इसीतरह भारतभर में जिन संस्कृतिकर्मियों का नेतृत्व वे कर रही थीं दशकों से,उनका भी उनसे आखिरी वक्त कोई पहले जैसा संबंध और संवाद नहीं रहा है।

फिरभी महाश्वेता दी न होती तो हमें किसानों और आदिवासियों के इतिहास,उनके हकहकूक,जलजंगल जमीन की लड़ाई,बदलाव के ख्वाब और लगातार प्रतिरोध से जुड़ने की प्रेरणा ठीक उसीतरह नहीं मिलती जैसी मिली है।

हाल के वर्षों में दक्षिणपंथी झुकाव के बावजूद जनप्रतिबद्धता के मामले में और कमसकम उनके लिखे साहित्य में कहीं किसी किस्म का कोई समझौता नहीं है।भारतीय साहित्य की वही मुख्यधारा है।

सत्ता के साथ नत्थी हो जाने का यह हश्र है।इस अपूरणीय निजी और सामाजिक क्षति के मौके पर अफसोस यही है और बार बार यही हादसा हो रहा है,सबक यह है।

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