Monday, November 30, 2015

I know that Ashkji had been so much worried about the completion of this novel.कल "हिन्दुस्तानी आवाज़" में अश्क साहब के नाविल "गिरती दीवारें" के अंग्रेज़ी अनुवाद के लोकार्पण की कुछ तस्वीरें

I am so glad because Ashk ji used to interct on this novel with me while I used to discuss with him in on America se savdhan.


Ashkji treated this novel as any master would treat his masterpiece.

I am grateful to Neelabhji that he shares this information and it soothes my heart in the deepest level as I know that Ashkji had been so much worried about the completion of this novel.

But he completed with his brand remained intact.

I have more causes to celebrate because my heart has been always full of inspiration while ,whenever I did read the Gang of Four. 

Ashkji,Manto,Krishnachander and rajinder Singh Bedi. 

Congrats.

However I could not pay respect to his wish that he wanted me to complete America se savdhan and it has never to be published !

I am sure Girti Deeren would be a grand Success!



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Bajrangi Linguistics


 
Priyanshu Bhatt commented on your photo.
 
   
Priyanshu Bhatt
November 30 at 7:16pm
 
abe chu.........be........... abe sabse pahle ye bata do yaha per RSS ne kiya kya hai??? tumhare baap ka khoon kiya ya tumare bachho ko bumb se uda diya??? kabhi dekha bumb bisphot se mrne walo ko??? nahi dekha kyuki wo tumhare nahi the......... kisne mara mullo ne mara....... unke sathi kon the india ke muslim...... abe ab dekho gaddar kon nikla india ka gaddar muslim jise tum jaise gaddro ne BSF me bharti krwaya tha..wahi kom gaddar nikli...... jis din tera ya tumhar beta aatnki hamle me mara jayega us din tum jaise mullo ko samajh me aayega.........ki dard kya hota hai tumhe to usi dard se roti senkni hai ki kab tum ya tumhari party ko vote mile tumhe note mile............... bina reason ke bhadwa post mt dala kro
 
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साजिशों की दास्तान “आपरेशन अक्षरधाम” समीक्षा - अवनीश कुमार


साजिशों की दास्तान "आपरेशन अक्षरधाम"

समीक्षा - अवनीश कुमार

c-2, Peepal wala Mohalla,
Badli Ext. Delhi-42
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

"आपरेशन अक्षरधाम" हमारे राज्यतंत्र और समाज के भीतर जो कुछ गहरे सड़ गल
चुका है, जो भयंकर अन्यापूर्ण और उत्पीड़क है, का बेहतरीन आलोचनात्मक
विश्लेषण और उस तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा है।

24 सितंबर 2002 को  हुए गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हमले को अब करीब 13
साल बीत चुके हैं। गांधीनगर के सबसे पॉश इलाके में स्थित इस मंदिर में
शाम को हुए एक 'आतंकी' हमले में कुल 33 निर्दोष लोग मारे गए थे। दिल्ली
से आई एनएसजी की टीम ने वज्रशक्ति नाम से आपरेशन चलाकर दो फिदाईनो को
मारने का दावा किया था। मारे गए लोगों से उर्दू में लिखे दो पत्र भी
बरामद होने का दावा किया गया जिसमें गुजरात में 2002 में राज्य प्रायोजित
दंगों में मुसलमानों की जान-माल की हानि का बदला लेने की बात की गई थी।
बताया गया कि दोनो पत्रों पर तहरीक-ए-किसास नाम के संगठन का नाम लिखा था।

इसके बाद राजनीतिक परिस्थितियों में जो बदलाव आए और जिन लोगों को उसका
फायदा मिला यह सबके सामने है और एक अलग बहस का विषय हो सकता है। इस मामले
में जांच एजेंसियों ने 6 लोगों को आतंकियों के सहयोगी के रूप में
गिरफ्तार किया था जो अंततः सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पूरी तरह
निर्दोष छूट गए। यह किताब मुख्य रूप से जिन बिंदुओं पर चर्चा करती है
उनमें पुलिस, सरकारी जांच एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों तथा निचली
अदालतों और उच्च न्यायालय तक की कार्यप्रणालियों और सांप्रदायिक चरित्र
का पता चलता है। यह भी दिखता है कि कैसे राज्य इन सभी प्रणालियों को
हाइजैक कर सकता है और किसी एक के इशारे पर नचा सकता है।

आपरेशन अक्षरधाम' मुख्य रूप से उन सारी घटनाओं का दस्तावेजीकरण और
विश्लेषण है जो एक सामान्य पाठक के सामने उन घटनाओं से जुड़ी कड़ियों को
खोलकर रख देता है। यह किताब इस मामले के हर एक गवाह, सबूत और आरोप को
रेशा-रेशा करती है। मसलन इस 'आतंकी' हमले के अगले दिन केंद्रीय
गृहमंत्रालय ने दावा किया कि मारे गए दोन फिदाईन का नाम और पता मुहम्मद
अमजद भाई, लाहौर, पाकिस्तान और हाफिज यासिर, अटक पाकिस्तान है। जबकि
गुजरात पुलिस के डीजीपी के चक्रवर्ती ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के दावे
से अपनी अनभिज्ञता जाहिर की और कहा कि उनके पास इस बारे में कोई जानकारी
नहीं है।

इसी तरह पुलिस के बाकी दावों जैसे फिदाईन मंदिर में कहां से घुसे, वे किस
गाड़ी से आए और उन्होने क्या पहना था, के बारे में भी अंतर्विरोध बना
रहा। पुलिस का दावा और चश्मदीद गवाहों के बयान विरोधाभाषी रहे पर
आश्चर्यजनक रूप से पोटा अदालत ने इन सारी गवाहियों की तरफ से आंखें मूंदे
रखी।

चूंकि यह एक आतंकी हमला था इसलिए इसकी जांच ऐसे मामलों की जांच के लिए
विशेष तौर पर गठित आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) को सौंपी गई। लेकिन
इसमें तब तक कोई खास प्रगति नहीं हुई जब तक कि एक मामूली चेन स्नेचर समीर
खान पठान को पुलिस कस्टडी से निकालकर उस्मानपुर गार्डेन में एक फर्जी
मुठभेड़ में मार नहीं दिया गया। अब इस मामले में कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारी
जेल में हैं। इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट में लिखा गया – "कि पठान
मोदी और अन्य भाजपा नेताओं को मारना चाहता था। उसे पाकिस्तान में आतंकवाद
फैलाने का प्रशिक्षण देने के बाद भारत भेजा गया था। यह ठीक उसके बाद हुआ
जब पेशावर में प्रशिक्षित दो पाकिस्तानी आतंकवादी अक्षरधाम मंदिर पर हमला
कर चुके थे।" मजे की बात ये थी इसके पहले अक्षरधाम हमले के सिलसिले में
25 सितंबर 2002 को जी एल सिंघल द्वारा लिखवाई गई प्रथम सूचना रिपोर्ट में
मारे गए दोनो फिदाईन के निवास और राष्ट्रीयता का कहीं कोई जिक्र नहीं था!

28 अगस्त 2003 की शाम को साढ़े 6 बजे एसीपी क्राइम ब्रांच  अहमदाबाद के
दफ्तर पर  डीजीपी कार्यालय से फैक्स  आया जिसमें निर्देशित  किया गया था
कि अक्षरधाम  मामले की जांच क्राइम  ब्रांच को तत्काल प्रभाव  से एटीएस
से अपने हाथ  में लेनी है। इस फैक्स के मिलने के बाद एसीपी जीएल सिंघल
तुरंत एटीएस आफिस चले गए जहां से उन्होने रात आठ बजे तक इस मामले से
जुड़ी कुल 14 फाइलें लीं। इसके बाद शिकायतकर्ता से खुद ब खुद वे
जांचकर्ता भी बन गए और अगले कुछ ही घंटों में उन्होने अक्षरधाम मामले को
हल कर लेने और पांच आरोपियों को पकड़ लेने का चमत्कार कर दिखाया। इस
संबंध में जीएल सिंघल का पोटा अदालत में दिए बयान के मुताबिक – "एटीएस की
जांच से उन्हें कोई खास सुराग नहीं मिला था और उन्होने पूरी जांच खुद नए
सिरे से 28 अगस्त 2003 से शुरू की थी।" और इस तरह अगले ही दिन यानी 29
अगस्त को उन्होने पांचों आरोपियों को पकड़ भी लिया। पोटा अदालत को इस बात
भी कोई हैरानी नहीं हुई।

परिस्थितियों को देखने के बाद ये साफ था कि पूरा मामला पहले से तय कहानी
के आधार पर चल रहा था। जिन लोगों को 29 अगस्त को गिरफ्तार दिखाया गया
उन्हें महीनों पहले से क्राइम ब्रांच ने अवैध हिरासत में रखा था, जिसके
बारे में स्थानीय लोगों ने प्रदर्शन भी किया था। जिन लोगों को "गायकवाड़
हवेली" में रखा गया था वे अब भी उसकी याद करके दहशत से घिर जाते हैं।
उनको अमानवीय यातनाएं दी गईं, जलील किया गया और झूठे हलफनामें लिखवाए गए।
उन झूठे हलफनामों के आधार पर ही उन्हें मामले में आरोपी बनाया गया और
मामले को हल कर लेने का दावा किया गया।

किताब में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि जिन इकबालिया बयानों के आधार
पर 6 लोगों को आरोपी बना कर गिरफ्तार किया गया था, पोटा अदालत में बचाव
पक्ष की दलीलों के सामनें वे कहीं नहीं टिक रहे थे। लेकिन फिर भी अगर
पोटा अदालत की जज सोनिया गोकाणी ने बचाव पक्ष की दलीलों को अनसुना कर
दिया तो उसकी वजह समझने के लिए सिर्फ एक वाकए को जान लेना काफी होगा।
--"मुफ्ती अब्दुल कय्यूम को लगभग डेढ़ महीने के ना काबिल-ए-बर्दाश्त
शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बाद रिमांड खत्म होने के एक दिन पहले 25
सितंबर को पुरानी हाईकोर्ट नवरंगपुरा में पेश किया गया जहां पेशी से पहले
इंस्पेक्टर वनार ने उन्हें अपनी आफिस में बुलाया और कहा कि वह जानते हैं
कि वह बेकसूर हैं लेकिन उन्हें परेशान नहीं होना चाहिए, वे उन्हें बचा
लेंगे। वनार ने उनसे कहा कि उन्हें किसी अफसर के सामने पेश किया जाएगा जो
उनसे कुछ कागजात पर हस्ताक्षर करने को कहेंगे जिस पर उन्हें खामोशी से
अमल करना होगा। अगर उन्होने ऐसा करने से इंकार किया या हिचकिचाए तो
उन्हें उससे कोई नहीं बचा पाएगा क्योंकि पुलिस वकील जज सरकार अदालत सभी
उसके हैं।"

दरअसल सच तो ये था कि बाकी सभी लोगों के साथ ऐसे ही अमानवीय पिटाई और
अत्याचार के बाद कबूलनामें लिखवाए गए थे और उनको धमकियां दी गईं कि अगर
उन्होने मुंह खोला तो उनका कत्ल कर दिया जाएगा। लेकिन क्राइम ब्रांच की
तरफ से पोटा अदालत में इन इकबालिया बयानों के आधार पर जो मामला तैयार
किया गया था, अगर अदालत उसपर थोड़ा भी गौर करती या बचाव पक्ष की दलीलों
को महत्व देती तो इन इकबालिया बयानों के विरोधाभाषों के कारण ही मामला
साफ हो जाता, पर शायद मामला सुनने से पहले ही फैसला तय किया जा चुका था।
किताब में इन इकबालिया बयानों और उनके बीच विरोधाभाषों का सिलसिलेवार
जिक्र किया गया है।

इस मामले में हाइकोर्ट का फैसला भी कल्पनाओं से परे था। चांद खान, जिसकी
गिरफ्तारी जम्मू एवं कश्मीर पुलिस ने अक्षरधाम मामले में की थी, के सामने
आने के बाद गुजरात पुलिस के दावे को गहरा धक्का लगा था। जम्मू एवं कश्मीर
पुलिस के अनुसार अक्षरधाम पर हमले का षडयंत्र जम्मू एवं कश्मीर में रचा
गया था जो कि गुजरात पुलिस की पूरी थ्योरी से कहीं मेल नहीं खाता था।
लेकिन फिर भी पोटा अदालत ने चांद खान को उसके इकबालिया बयान के आधार पर
ही फांसी की सजा सुनाई थी।

लेकिन इस मामले में हाइकोर्ट ने अपने फैसले में लिखा – "वे अहमदाबाद,
कश्मीर से बरेली होते हुए आए। उन्हें राइफलें, हथगोले, बारूद और दूसरे
हथियार दिए गए। आरोपियों ने उनके रुकने, शहर में घुमाने और हमले के स्थान
चिन्हित करने में मदद की।" जबकि अदालत ने आरोपियों का जिक्र नहीं किया।
शायद इसलिए कि आरोपियों के इकबालियाय बयानों में भी इस कहानी का कोई
जिक्र नहीं था। जबकि पोटा अदालत में इस मामले के जांचकर्ता जीएल सिंघल
बयान दे चुके थे कि उनकी जांच के दौरान उन्हें चांद खान की कहीं कोई
भूमिका नहीं मिली थी। लेकिन फिर भी हाइकोर्ट ने असंभव सी लगने वाली इन
दोनो कहानियों को जोड़ दिया था और इस आधार पर फैसला भी सुना दिया।

इसी तरह हाइकोर्ट के फैसले में पूर्वाग्रह और तथ्य की अनदेखी साफ नजर आती
है जब कोर्ट ये लिखती है कि "27 फरवरी 2002 को गोधरा में ट्रेन को जलाने
की घटना के बाद, जिसमें कुछ मुसलमानों ने हिंदू कारसेवकों को जिंदा जला
दिया था, गुजरात के हिंदुओं में दहशत फैलाने और गुजरात राज्य के खिलाफ
युद्ध छेड़ने की आपराधिक साजिश रची गई।" जबकि गोधरा कांड के मास्टरमाइंड
बताकर पकड़े गए मौलाना उमर दोषमुक्त होकर छूट चुके हैं और जस्टिस यूसी
बनर्जी कमीशन, जिसे ट्रेन में आग लगने के कारणों की तफ्तीश करनी थी, ने
अपनी जांच में पाया था कि आग ट्रेन के अंदर से लगी थी। इसी तरह हाइकोर्ट
ने बहुत सी ऐसी बातें अपने फैसले में अपनी तरफ से जोड़ दीं, जो न तो
आरोपियों के इकबालिया बयानों का हिस्सा थी और न ही जांचकर्ताओं ने पाईं।
और इस तरह पोटा अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए मुफ्ती अब्दुल कय्यूम,
आदम अजमेरी, और चांद खान को फांसी, सलीम को उम्र कैद, मौलवी अब्दुल्लाह
को दस साल और अल्ताफ हुसैन को पांच की सजा सुनाई।

इसी तरह हाइकोर्ट ने इन आरोपों को कि ये षडयंत्र सउदी अरब में रचा गया और
आरोपियों ने गुजरात दंगों की सीडी देखी थी और आरोपियों ने इससे संबंधित
पर्चे और सीडी बांटीं जिसमें दंगों के फुटेज थे, को जिहादी साहित्य माना।
सवाल ये उठता है कि अगर कोई ऐसी सीडी या पर्चा बांटा भी गया जिसमें
गुजरात दंगों के बारे में कुछ था तो उसे जिहादी साहित्य कैसे माना जा
सकता है। हालांकि अदालतें अपने फैसलों में अपराध की परिभाषा भी देती हैं
उसके आधार पर किसी कृत्य को आपराधिक घोषित करती हैं पर इस फैसले में सउदी
अरब में रह रहे आरोपियों को जिहादी साहित्य बांटने का आरोपी तो बताया गया
है पर जिहादी साहित्य क्या है इसके बारे में कोई परिभाषा नहीं दी गई है।

आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने क्रमवार 9 बिंदुओं पर अपना विचार रखते हुए
सभी आरोपियों को बरी किया। सर्वोच्च न्यायलय ने माना कि इस मामले में
जांच के लिए अनुमोदन पोटा के अनुच्छेद 50 के अनुरूप नहीं था। सर्वोच्च
न्यायलय ने यह भी कहा कि आरोपियों द्वारा लिए गए इकबालिया बयानों को दर्ज
करने में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय नियमों की अनदेखी की गई। जिन दो
उर्दू में लिखे पत्रों को क्राइम ब्रांच ने अहम सबूत के तौर पर पेश किया
था उन्हें भी सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। फिदाईन की पोस्टमार्टम
रिपोर्ट का हवाला देते हुए अदालत ने कहा – "जब फिदाईन के सारे कपड़े खून
और मिट्टी से लथपथ हैं और कपड़ों में बुलेट से हुए अनगिनत छेद हैं तब
पत्रों का बिना सिकुड़न के धूल-मिट्टी और खून के धब्बों से मुक्त होना
अस्वाभाविक और असंभ्व है।" इस तरह सिर्फ इकबालिया बयानों के आधार पर किसी
को आरोपी मानने और सिर्फ एक आरोपी को छोड़कर सभी के अपने बयान से मुकर
जाने के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने सारे आरोपियों
को बरी कर दिया।

हालांकि ये सवाल अब भी बाकी है कि अक्षरधाम मंदिर पर हमले का जिम्मेदार
कौन है। इसलिए लेखकद्वय ने इन संभावनाओं पर भी चर्चा की है और खुफिया
विभाग के आला अधिकारियों के हवाले से वे ये संभावना जताते हैं कि इस हमले
की राज्य सरकार को पहले से जानकारी थी। फिदाईन हमलों के जानकार लोगों के
अनुभवों का हवाला देते हुए लेखकों ने यह शंका भी जाहिर की है क्या मारे
गए दोनो शख्स सचमुच फिदाईन थे? इसके साथ ही इस हमले से मिलने वाले
राजनीतिक फायदे और समीकरण की चर्चा भी की गई है।

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि किताब में कहीं भी कोरी कल्पनाओं का सहारा
नहीं लिया गया है। इस पूरे मुकदमें से जुड़े एक-एक तथ्य को बटोरने में
लेखकों को लंबा समय लगा है। मौके पर जा कर की गई पड़तालों, मुकदमें में
पेश सबूतों, गवाहियों, रिपोर्टों और बयानों की बारीकी से पड़ताल की गई है
और इन सारी चीजों को कानून सम्मत दृष्टिकोण से विवेचना की गई है। यह
किताब, राज्य सरकार की मशीनरी और खुफिया एजेंसियों, अदालतों तथा राजनीतिक
महत्वाकांक्षा की साजिशों की एक परत-दर-परत अंतहीन दास्तान है।

"आपरेशन अक्षरधाम"
(उर्दू हिंदी  में एक साथ प्रकाशित)
लेखक – राजीव यादव, शाहनवाज आलम
प्रकाशक – फरोश मीडिया
डी-84, अबुल फजल इन्क्लेव
जामिया नगर, नई दिल्ली-110025

नेपाल का मौजूदा संकट और भारत

Friends,

Since last couple of months after the announcement of a new constitution, Nepal is facing a serious crisis due to the undeclared economic blockade imposed by India. The Indian government has denied any such sanction rather it blames this on Madhesi protestors of terai region who have hindered the entry points on Indo-Nepal border and blocked all supplies. There is no doubt that Madhesi people are dissatisfied with the new constitution and hence they are protesting against it since last three months. They feel that it has failed to address their demands and an injustice has been done to the community. But the Indian Government, that was already unhappy with the Nepali leadership has now played up on this rage and has tried to teach a lesson by first imposing the blockade directly and then indirectly on the pretext of Madhesi sentiment.

This impasse has created an unprecedented crisis for the Nepali people. People from plains and hilly areas both are affected from this. There is serious dearth of petrol, cooking gas, medicines in Nepal and the ordinary life is in shackles. People feel as if they are citizens of a war-ridden nation. The contradictions between both the countries as well as that of hill and terai are getting sharper day by day. This contradiction is making inroads into the common masses too.

This is a grave situation. In solidarity with the people of Nepal including the agitating people of  Tarai-Madhesh, we hope to resolve this situation through dialogue as soon as possible. The government of India must not treat this crisis as a prestige issue rather it should immediately call for an end to this 'unofficial blockade'.

To deliberate upon the situation we have called a meeting with some of our Nepalese comrades. We expect your presence and participation. 

Nepal's Present Crisis and India
Date & Time : 4 December 2015, 3.00 pm
Venue : Seminar Hall, N. D. Tewari Bhavan 
(next to Gandhi Peace Foundation), 
Deendayal Upadhyay Marg, New Delhi

Anand Swaroop Verma
On behalf of Samkaleen Teesari Dunia
Phone: 9810720714

मित्रो,

                         

पिछले लगभग दो माह सेजब से नए संविधान की घोषणा हुईभारत द्वारा लागू की गयी आर्थिक नाकाबंदी के कारण पड़ोसी देश नेपाल जबरदस्त संकट के दौर से गुजर रहा है. भारत सरकार का कहना है कि उसने किसी तरह की नाकाबंदी नहीं की है और तराई क्षेत्र में मधेसी आंदोलकारियों ने सीमा से नेपाल के प्रवेश मार्गों पर अवरोध पैदा किये हैं जिससे भारत से कोई आपूर्ति संभव नहीं हो पा रही है. इसमें कोई संदेह नहीं कि मधेस की जनता नए संविधान से असंतुष्ट है और वह पिछले तीन महीनों से आन्दोलन कर रही हैउसे लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है और उसकी मागों को संविधान में संबोधित नहीं किया गया है. नेपाल के मौजूदा नेतृत्व से नाराज भारत सरकार ने मधेसी जनता के आन्दोलन की आड़ ले कर नेपाल को सबक सिखाने के मकसद से पहले तो प्रत्यक्ष तौर पर और फिर अप्रत्यक्ष तौर पर नाकाबंदी की है.


इस स्थिति ने नेपाल की जनता के सामने अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया हैइस संकट की चपेट में पहाड़ और तराई दोनों क्षेत्र की आबादी है. आज देश के अंदर न तो पेट्रोल है और न खाना बनाने की गैसअस्पतालों में दवाएं बिलकुल ख़त्म हैं और उनकी पूरी ज़िन्दगी तहस-नहस हो गयी है. उनकी हालत किसी युद्ध-पीड़ित देश के नागरिक जैसी हो गयी है. पहाड़ और तराई के बीच तथा समग्र नेपाल और भारत के बीच अन्तर्विरोध खतरनाक रूप लेते जा रहे हैं. यह अन्तर्विरोध महज सरकारों के बीच नहीं बल्कि जनता के बीच भी विकसित होने लगा है.


यह स्थिति बहुत चिंताजनक है. मधेस क्षेत्र और तराई सहित नेपाल की जनता के साथ एकजुटता व्यक्त करते हुए हम चाहते हैं कि बातचीत के जरिये समस्या का जल्द से जल्द समाधान हो. भारत सरकार इसे झूठे सम्मान का विषय न बना कर इस 'अनऑफीसियल ब्लाकेडको फ़ौरन ख़त्म करे.


इस समूचे मामले पर विचार करने के लिए हमने नेपाल के अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर एक बैठक बुलाई है. हम चाहते हैं कि आप इसमें शामिल हों और अपनी राय रखें.


विषय : नेपाल का मौजूदा संकट और भारत

तिथि : 4 दिसम्बर 2015, दिन के 3 बजे.

   स्थान : सेमिनार हॉल, एन. डी. तिवारी भवन,

                          (गाँधी शांति प्रतिष्ठान के बगल में), दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नयी दिल्ली

 

आनंद स्वरूप वर्मा

'समकालीन तीसरी दुनिया' की ओर से.

Phone: 9810720714


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वीरेन डंगवाल के संग एकालाप


वीरेन डंगवाल के संग एकालाप


मृत्‍युंजय 


मेरे भीतर एक डोमाजी उस्ताद बैठे हैं

             साभारःअभिषेक श्रीवास्तव का जनपथ


(क)



"क्या करूँ
कि रात न हो
टी.वी. का बटन दबाता जाऊँ
देखूँ खून-खराबे या नाच-गाने के रंगीन दृश्य
कि रोऊँ धीमे-धीमे खामोश
जैसे दिन में रोता हूँ
कि सोता रहूँ
जैसे दिन-दिन भर सोता हूँ
कि झगड़ूँ अपने आप से
अपना कान किसी तरह काट लूँ
अपने दाँत से
कि टेलीफोन बजाऊँ
मगर आयँ-बायँ-शायँ कोई बात न हो"

तब मेरा क्या होगा वीरेन दा -

दिन कहीं बचा है क्या वीरेन दा?
कि पूरा दिन एक विशाल चमकीली काली पट्टियों वाला विज्ञापन है
जिसमें रंगों की अँधेरी सुबहें परवाज करती हैं
कि पूरी रात एक रिमोट है
जिसके बटन दिन के हाथों में हैं।
कि पूरी कायनात एक स्क्रीन में बदल गई है
सब कुछ आभासी हो गया है।
कि प्रेम करने को आतुर कमीने नंगे बदन खुले रास्ते में खड़े हैं
रास्ता छेंक कर
कि रक्त की शरण्य भी आखेटकों की सैरगाह है
कि पटक देने का जी चाहता है सर
कहीं भी

कहीं कुछ भी नष्ट नहीं होता
अविनाशी हो गया है सब कुछ
कोई ऐसी जगह बची ही नहीं जहाँ कोई न हो
दुनिया के सारे दर और दीवारजिन्हें घर कहते है
खाक हो गए हैं
आइए एक पहाड़ उलटकर अपनी रीढ़ पर रख लें
और दब जाएँ इस अविनाशी नश्वरता के नीचे
दम घुटने से

मैं तो... मन करता है अपनी टाँगे धीरे धीरे रेत दूँकाट लूँ
गर्दन खींच दूँ रबर की तरह
मुट्ठियों में भींच लूँ सारी हड्डियाँ
बाकी लोथ पटक दूँ
सारे कमरे में फैल जाए आदिम रक्त गंध

कहीं तो कुछ हो
मत बदलेबचा रहे
मत बचेयाद रहे
याद न रहेसपने रहें

सपने जो हरदम हकीकत के अदृश्य हाथों की अवश कठपुतलियाँ हैं
और हकीकत तो वही है न वीरेन दा!

ये हम कहाँ आ गए वीरेन दा -

कि आपके गर्म हाथों में छुपाकर अपना मुँह
रोने का मन कर रहा है
पर आँसू नश्तर की तरह चुभ रहे हैं
रोती हुई आँखे दर्द से सूख गई हैं
दिमाग की नस तक फैल गया है चिपचिपा मांस
मेरी अपनी ही पलकें चुभ रही हैं खुले घाव में
आपकी हथेली को भेद हजार कीड़े भिनक रहे हैं
रक्त गंध के हर जर्रे में उनकी नुकीली सूँड़ गड़ गई है
उसी भयानक स्क्रीन पर लाइव चल रहा है यह दृश्य
पीछे से एक आकार में अँगुलियाँ उठाये एक हिंस्र पशु नगाड़ों के शोर में अपनी बारीक दाढ़ी में नफीस तराना पढ़ रहा है!

आप सुन रहे हैं न !
देखा आपने,
आपने देखा !
देख रहे हैं न।

चलिए उठिए वीरेन दा,
आप इतने घायल तो कभी नहीं हुए
हलक तक तक पसरे लहू में छप छप करते हम स्क्रीन पर दिख रहे हैं
देखिए नाटक नहीं है ये
टी वी चल रहा है
भागिए वीरेन दा
जल्दी करिए
कुचल नहीं सकते तो रेंग कर छुपने की कोशिश करिए प्लीज
हजार मेगा पिक्सल की रेंज में हैं हम !
लोग हँस रहे हैं
पापकार्न के ठोंगे और नया सिमअभी अभी खरीदे गए हैं।
एक नौकरी चहिए वीरेन दामैं तंग आ गया हूँ इस हरामपंथी से
चुपचाप पडा रहूँ कोई आए न जाए कुछ सुनूँ नहीं कुछ भी देख न सकूँ महसूस करना बंद कर दूँ बउरा जाऊँ
सुख में नहीं दुख में नहीं चेतना से भाग जाऊँ

एक नौकरी चहिए वीरेन दा
अपने कमीनेपन की बाड़ लगाकर रोक लेना चाहता हूँ सब
क्यों वीरेन दा
इस हरमजदगी के बाद भी वह मुझे प्रेम करती है
आप भी तो करते हैं
बर्दाश्त नहीं होता अब कुछ भी असली
मुझे छोड़ दीजिए
मत छुइए मुझे
हट जाइए
हटिए

मुझे एक नौकरी चाहिए वीरेन दा
वहीं उस स्क्रीन के भीतर
मेरे गले तक उल्टिओं का स्वाद भर आया है
उसे पी लूँगा
मैं कमजोर नहीं हूँ वीरेन दा
आपने क्या समझ रक्खा है
मैं जानता हूँ ये सब नकली है
मैं अभी फोड़ डालूँगा पूरा प्रोजेक्टर
एक नौकरी दिलाइए न वीरेन दा
नहीं दिलवा सकते फिर भी दिलवाइए तो...

शाम को मर जाता है वक्त
वक्त की लाश पर दिन और रात के गिद्ध खरोंचते है जटिल आकृतियाँ
सुबह गीला लाल रंग पसर जाएगा सब ओर
24 -7 का धंधा है यह
इतनी कठपुतलियाँ इतने वेग से इतनी तरफ घूम रही हैं
इतने धागों से बँधी हुई बड़े से देग में
यह रणनीति बनाने का वक्त है
वहीं चलिए वीरेन दा
उठिएलहू सने होठों में खैनी दबाइए
अपनी कैरिअर वाली साइकिल निकालिए
चलिए चलते हैं कानपुर के रास्ते
जहाँ आपके दोस्त और मेरे गुरु हैं
लाल इमली की भुतही मिल की सीढ़ियाँ उतरिए
जहाँ लोग हैं
इस स्क्रीन से बाहर निकालिए भाई
कोई प्यारा व्यारा नहीं है यहाँ
चलिए!

अपने सलवटों भरे चेहरे को सँभालिए
जी कड़ा करिए
हैंडिल थाम लीजिए कस कर
बाप रे! सँभालिए
इतनी तेजी इस उम्र में
मैं छूट जाऊँगा
गिर जाऊँगा मैं
सहस्रों फुट नीचे यहीं खो जाऊँगा मैं
इन प्रिज्मों की आभासी दुनिया में
जरा धीरे चलिए
हजारहाँ रपट चले घुटनों पर तो तरस खाइए
ये कोई फैसले का वक्त नहीं है
अभी तो रात बाकी है बात बाकी है
बाकीमीर अब नहीं हैं
कोई पीर भी नहीं है
हिंस्र पशुओं से भरा ये अँधेरा काफी डरावना है
अपने डर से डरिए वीरेन दा धीरे चलिए

मेरे भीतर एक डोमाजी उस्ताद बैठे हैं
मुझसे डर बुड्ढे
धीरे चल
चाल बदल कर नहीं बच सकता तू !

माफ करिएगा वीरेन दा
अनाप-शनाप बक गया गुस्से में
पर जा कहाँ रहे हैं
चला तो आप ऐसे रहे हैं जैसे जल्दी ही कहीं पहुँचना है हमें
पर इसी स्क्रीन के भीतर कहाँ तक जाएँगे आप
ऐसा न करिए कि मुझे गिरा दीजिए कहीं
यह रास्ता इतिहास की तरफ तो जाता नहीं है
भविष्य की तरफ तो जाता नहीं है
वर्तमान में तो आप भाग ही रहे हैं
फिर जा कहाँ रहे हैं हम

अद्भुत है यह तो अविश्वसनीय असंभव
हम कहीं पहुँच गए
ये क्या जगह है दोस्तों
ये क्या हो रहा है
मुझे मितली आ रही है
फिर से दिन उग आया है वीरेन दा
चिड़ियों की चोंचे नर्म शबनमी रक्त में लिथड़ी हैं
पेड़ अट्टहास कर रहे हैं
बाजरे की कलगी के रोएँ चुभ रहे हैं भालों की तरह हवा की अँतड़ियों में
हरियाली के थक्कों के बीच आप मुझे कहाँ ले आए हैं
सरपट की नुकीली पत्तियाँ खुखरियों की तरह काट रही हैं मुझे
इतनी रेत इतनी रेत
मेरा दम घुट रहा है
वक्त बीत रहा है वीर... ए...


(ख)


एक दर्द है जो अब होता ही नहीं
एक मन है जो चलता ही नहीं
एक जिस्म भी है जिस पर मेरा छोड़ हर किसी का नियंत्रण है
एक दुख है जो अब देश काल के शर से बिंधकर दुख ही नही रह गया है
आजकल तो इतने मुल्कों से इतनी लाशें उठती रहती हैं इतनी चीजों की कि
दुनिया एक कब्रगाह जैसी हो गई है
यहाँ आपसे धीमे धीमे बतियाते हुए भी मुझे डर है कि
हम एक बड़ी कब्र में तो नहीं बैठे हैं वीरेन दा?

नहीं...
अब पहले जैसी हालत नहीं है।
पक्का !
अब थोड़ा बेहतर महसूस कर रहा हूँ।
कितना परेशान किया आपको
मैं भी कैसा अभागा हूँ कि यह भी नहीं कर सका कि
कम से कम आपके जख्मों पर पट्टी ही बदल पाऊँ
ऐसे हालात में आप न होते तो
मेरा क्या होता वीरेन दा?
चुप रहने से क्या होगा ?
कहा न मेरी तबियत ठीक है !
बेहतर हूँ भाई,

अब सुनिए-
की-बोर्डों की ठक-ठक के नीचे
विराट कंप्यूटर के पीछे से
वहाँउस स्क्रीन के धागों में मैं जब झाँक रहा था
मैंने धब्बे देखे थे
लाल खून से भरे और चमकते हुए...
आप जानते हैं कुछ तो बताइए
उस विशाल स्क्रीन को
शार्ट सर्किट करने का कोई तो रास्ता होगा न

ओ होये बात,
अरे वीरेन दामुझे न बनाइए
मैं तब से जानता हूँ आपको जब आप
कंधे पर लटकाए घूमते थे मुझे
मेरी बेसिक रीडर को सँभालते बचाते
और तीनरंगे झंडे को उदास हसरत से देखते हुए


(ग)


यहाँ कुछ हरा-हरा सा दिख रहा है
क्या यही वह जगह है जहाँ से
पलटकर
कुछ छीन लातेमार खातेमार देते लोग
आत्महत्या की घिरी चौपाल में
हत्या के मंसूबे बनाकर।

'मरनाकहने से अपने घावों की
याद ताजा हो जाती है
और मारने से अपनी चोट भूल जाती है
हमारे अपने ही हैं ये दोस्त
सपने की व्यथा जैसे
कथा जैसी कई युग से कही जाती सुनी जाती आ रही है

गहरे पर्वतों के गर्भ में से
जंगलों की काष्ठव्यापी हरी कच्ची गंध से
पतली चपल और वेगवंती आ-वेग धारा से
बुलावा आ रहा है
चलेंगे वीरेन दा?


(30 नवंबर, 2010)
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हरीश रावत के जिंदल प्रेम में एक्‍सपोज़ हुई भाजपा, पीसी तिवारी व अन्‍य हिरासत में पुष्‍कर सिंह बिष्‍ट । अल्मोड़ा



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हरीश रावत के जिंदल प्रेम में एक्‍सपोज़ हुई भाजपा, पीसी तिवारी व अन्‍य हिरासत में


पुष्‍कर सिंह बिष्‍ट । अल्मोड़ा


रानीखेत के नैनीसार में जिंदल समूह को कौड़ियों के भाव ग्रामीणों की जमीन देने के विरोध में आए उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के पीसी तिवारी व उनके आठ सहयोगियों सहित बड़ी संख्या में ग्रामीणों खासकर महिलाओं को पुलिस दमन का शिकार होना पड़ा। इलाके को पुलिस छावनी बनाकर मुख्यमंत्री ने इस कथित अंतरराष्‍ट्रीय स्कूल का उद्घाटन आखिरकार कर ही डाला। गुरुवार की सुबह जब परिवर्तन पार्टी के सदस्‍यों का दल कार्यक्रम स्थल की ओर रवाना हुआ तो कटारमल के पास पुलिस ने पीसी तिवारी, जीवन चंद्र, प्रेम आर्या, अनूप तिवारी, राजू गिरी आदि को हिरासत में ले लिया। देर शाम तक इन लोगों को नहीं छोड़ा गया था। 




इधर ग्रामीणों का एक बड़ा समूह जिसमें महिलाएं भी थीं, उन्‍हें पुलिस ने झड़प के बाद मजखाली के आसपास जंगल में रोक लिया और उनकी विरोध सामग्री, तख्ती, झण्डे आदि भी जला दिए। भाजपा नेता व पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष मोहन राम को भी हिरासत में लेने का समाचार है। 

उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी ने इसके विरोध में अल्मोड़ा में मुख्यमंत्री का पुतला फूंका। इस मुद्दे पर कई दिनों से मीडिया में हो हल्ला करने वाले भाजपा नेता अजय भट्ट कार्यक्रम स्थल पर तो नहीं गए अलबत्ता भाजपा नेता इस मामले में कन्नी काटते रहे। भाजपा सांसद मनोज तिवारी के मौके पर आने से पूरी भाजपा को मानो सांप सूंघ गया। कई भाजपा नेताओं ने यहां तक कहा कि मामला उनकी समझ में अभी नहीं आया है। सुबह से ही जिंदल समूह के इस कार्यक्रम की तैयारी के अखबारों में जो विज्ञापन दिखे उसमें भाजपा सांसद अजय टम्टा व अनेक स्थानीय जनप्रतिनिधियों के बधाई संदेश थे जिससे पूरी भाजपा बैक फुट पर दिखी। ज्ञात हो कि अल्मोड़ा जिला में डीडा (द्वारसों) के तोक नौनीसार की 353 नाली (7.061 हेक्टेयर) भूमि प्रदेश सरकार दिल्ली की हिमांशु एजुकेशन सोसायटी को आवंटित करने की प्रक्रिया से सन्देह के घेरे में आ गयी है। स्थानीय ग्रामीण इसके विरोध में सड़क पर उतर आये हैं। 

अल्मोड़ा-रानीखेत के बीच द्वारसों क्षेत्र प्राकृतिक रूप से बहुत सुन्दर है। द्वारसों से काकड़ीघाट के लिये कई दशक से बन रहे मोटर मार्ग में मात्र 3 कि.मी. पर सड़क के किनारे नानीसार नामक तोक है जिसमें प्रदेश के मुख्यमंत्री हरीश रावत की सरकार बहुत गुपचुप तरीके से जिन्दल समूह की इस संस्था को कथित इन्टरनेशनल स्कूल के लिये कौडि़यों के भाव आवंटित कर रही है किन्तु आवंटन प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही दबंग संस्था ने जमीन पर कब्जा कर लिया है। 

कुमाऊँ में सार का मतलब खेती की जमीन से होता है। नानीसार का मतलब ही छोटी खेती की जमीन से है। प्रदेश सरकार के निर्देश पर प्रशासन ने इस जमीन के आवंटन की प्रक्रिया को इतने गोपनीय ढंग से अंजाम दिया कि डीडा के ग्रामीणों को 25 सितम्बर को इसका पता तब चला जब हिमांशु एजुकेशनल सोसायटी दिल्ली 260 जी.एल.एफ. तथा शिवाजी मार्ग नई दिल्ली के दर्जनों मजदूर व जे.सी.बी. मशीनों ने उनकी जमीन पर सड़क निर्माण, पेड़ों का विध्वंस व घेरबार शुरू कर दी। ग्रामीणों द्वारा हाथ पांव मारने के बावजूद जमीन पर कब्जा कर रहे लोगों एवं प्रशासन ने उन्हें कोई जानकारी नहीं दी। इस घटना के विरोध में 2 अक्टूबर को ग्रामीणों ने नैनीसार में धरना दिया, तब रानीखेत तहसील से पटवारी व पुलिस ने आकर उन्हें कार्य में व्यवधान न डालने की चेतावनी दी। ग्रामीणों ने एस.डी.एम. रानीखेत को ज्ञापन भी दिया। 8 अक्टूबर को दर्जनों ग्रामीण जिला मुख्यालय पर आये व वहां मौजूद ए.डी.एम. इला गिरी को इस दबंगई के खिलाफ ज्ञापन दिया। इसी दिन ग्रामीणों का यह दल उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी से मिला व अपनी जमीन बचाने में मदद की गुहार की।  

उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी ने 9 अक्टूबर को जिला अधिकारी विनोद कुमार सुमन से मिल कर प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन देकर ग्रामीणों की भूमि पर अतिक्रमण रोकने, पूरे प्रकरण की उच्च स्तरीय जांच व इस मामले से जुड़े सभी तथ्यों से सार्वजनिक करने की मांग की। 

11 अक्टूबर को डीडा-द्वारसों के ग्रामीणों के आमंत्रण पर उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के एक दल ने ग्रामीणों के साथ घटनास्थल का दौरा किया। घटनास्थल पर जिन्दल का स्कूल खोलने का बोर्ड लगा है व रोड़ से लगी भूमि पर खुदान सड़क निर्माण हो चुका है। बांज, काफल, चीड़ के पेड़ जमींदोज किये जा चुके हैं। मौके पर विद्युत विभाग का ट्रांसफार्मर लगा था, संस्था व पट्टी पटवारी के पास जमीन के कागजात नहीं थे और संस्था द्वारा वहां किये जा रहे विनाश को लेकर एस.डी.एम. रानीखेत, ए.पी.बाजपेयी को मौके पर जानकारी दी। मौके पर क्षेत्रीय पटवारी आया पर निर्माण कर रही संस्था व पटवारी के पास जमीन का कब्जा लेने का कोई आदेश नहीं था। 

इस बीच सूचना अधिकार अधिनियम से प्राप्त जानकारी से साफ हो गया है कि राजस्व अभिलेखों में श्रेणी 9(3)5 कृषि योग्य बंजर भूमि में दर्ज 7.061 हे. भूमि अभी तक भी नैनीसार डीडा द्वारसों की जमीन का जिन्दल ग्रुप के पक्ष में हस्तान्तरण नहीं हुआ। 

इस मामले में नियमानुसार ग्राम सभा की आम बैठक नहीं हुई और न ही आम ग्रामवासियों से अनापत्ति ली गयी। इस गांव के ग्राम प्रधान गोकुल सिंह राणा का एक अनापत्ति प्रमाण पत्र जिस पर 23 जुलाई 2015 की तिथि है, इसमें अनापत्ति प्रमाण पत्र देेते हुए लिखा है कि जमीन सार्वजनिक उपयोग व धार्मिक प्रयोजन की नहीं है जबकि जिला अधिकारी कार्यालय के पत्र पत्रांक 6444/सत्ताईस-19-15-15, दिनांक 29 जुलाई, 2013 में तीन बिन्दुओं के साथ ग्राम सभा की खुली बैठक में ग्राम की जनता ग्राम प्रधान प्राप्त अनापत्ति प्रस्ताव की सत्यापित प्रति मांगी गयी है। ग्रामीणों ने 15 अक्टूबर को उपजिलाअधिकारी रानीखेत के यहां हुए विरोध प्रदर्शन में ज्ञापन देकर कहा है कि ग्रामवासियों की खुली बैठक में कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं किया गया। यदि ऐसा फर्जी दस्तावेज तैयार किया गया है तो ऐसा करने वालों पर कार्यवाही की जाय। ग्रामीणों ने अतिक्रमणकारियों द्वारा लोभ-लालच देने, जबरन उठवा देने व जान से मारने की धमकी देने का आरोप भी लगाया है। 

इस भूमि का मूल्य रू. 4,16,59,900/- (चार करोड़ सोलह लाख उनसठ हजार नौ सौ रूपया) लगाया गया है। वार्षिक किराया मात्र 1996.80 पैसा लिखा गया है। इसी आधार पर उत्तराखण्ड सरकार ने 22 सितम्बर, 2015 को सचिव, उत्तराखण्ड शासन डी.एस.गब्र्याल की ओर से जारी शासनादेश में गवर्नमेन्‍ट ग्रान्ट एक्ट के अधीन पहले 30 वर्ष के लिये 2 लाख रूपये वार्षिक दर व 1196.80 किराये पर पट्टा निर्गत करने हेतु नियमानुसार अग्रिम कार्यवाही करने के आदेश दिये। इसका 7 अक्टूबर को उपजिलाअधिकारी ने पट्टे पर सशुल्क आवंटन करने हेतु अपनी आख्या दी। स्वयं तत्कालीन जिलाधिकारी विनोद कुमार सुमन ने सचिव डी.एस.गब्र्याल द्वारा जारी शासनादेश के बिन्दु 9 जिसमें सर्वोच्च न्यायालय जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य एवं झारखण्ड राज्य व अन्य बनाम पाकुर जागरण मंच व अन्य में न्यायालय के निर्देश का पालन सुनिश्चित करने को कहा है, जिस पर उपजिलाअधिकारी रानीखेत की आख्या अभी तक प्राप्त नहीं है। लेकिन अल्मोड़ा के जिला प्रशासन ने 25 सितम्बर को ही मिलीभगत कर उक्त भूमि पर जबरन संस्था को कब्जा करा दिया। 

ग्रामीणों का आरोप है कि उक्त भूमि उनकी नाप भूमि थी, जिसे बन्दोबस्त में गलत दर्ज किया गया। वहां वन पंचायत बनी है, चीड़ के पेड़ों पर लीसा लगा है, गांव का एक छोटा मन्दिर (थान) है लेकिन इन सभी की सरकार के इशारे पर अनदेखी की गयी है। जिन्दल समूह की इस कथित सोसायटी के दलाल अब ग्रामीणों को धमकाने, लालच देने व धन के जोर पर दुष्चक्र व गिरोहबन्दी में लग गये हैं। सरकार के इशारे पर कांग्रेस पार्टी से जुड़े लोगों को आगे कर ग्रामीणों के विरोध को दबाने की नाकाम कोशिश हो रही है। दिलचस्‍प बात यह है कि हिमांशु एजुकेशनल सोसायटी द्वारा जो प्रस्ताव प्रदेश के मुख्यमंत्री को दिया गया है उसमें उत्तराखण्ड के किसानों, मजदूरों के बच्चों की पढ़ाई इस कथित इण्टरनेशनल स्कूल में करने की कोई व्यवस्था नहीं है। शासनादेश में भी केवल अधिकारियों/कर्मचारियों के बच्चों को शिक्षा देने का जिक्र किया गया है। 

इस सोसायटी के दस्तावेजों में साफ है कि इस कथित अंतरराष्‍ट्रीय स्कूल में विदेशी छात्र पढ़ेंगे और 30 प्रतिशत कोटे पर उत्तराखण्ड के अधिकारियों व नेताओं के बच्चों को सीट दी जाएगी। फिलहाल हरीश रावत जिसे उत्तराखण्ड का जमीनी नेता कहा जाता है, उनकी इस घटना से खूब किरकिरी हुई है। माना जा रहा है कि यह मामला दिल्ली में सोनिया दरबार तक जा सकता है। इस घटना में कन्नी काटने पर यूकेडी, भाजपा जैसे अन्य दलों की भी पोल खुली है जो उत्तराखण्ड के नाम पर लोगों से भावनात्मक खिलवाड़ करते हैं। 
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हमारे ऋषि-मुनियों ने हज़ारों साल पहले खोज लिया था सारी समस्‍याओं का समाधान : कैलाश सत्‍यार्थी


हमारे ऋषि-मुनियों ने हज़ारों साल पहले खोज लिया था सारी समस्‍याओं का समाधान : कैलाश सत्‍यार्थी

शांति के लिए नोबल पुरस्‍कार मिलने के बाद कैलाश सत्‍यार्थी की सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर सार्वजनिक प्रतिक्रिया बेहद कम देखने में आई है। इधर बीच उन्‍होंने हालांकि राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के मुखपत्र पांचजन्‍य को एक लंबा साक्षात्‍कार दिया है जो 9 नवंबर को वहां प्रकाशित हुआ है। उससे दो दिन पहले बंगलुरु प्रेस क्‍लब में उन्‍होंने समाचार एजेंसी पीटीआइ से बातचीत में कहा था कि देश में फैली असहिष्‍णुता से निपटने का एक तरीका यह है कि यहां की शिक्षा प्रणाली का ''भारतीयकरण'' कर दिया जाए। उन्‍होंने भगवत गीता को स्‍कूलों में पढ़ाए जाने की भी हिमायत की, जिसकी मांग पहले केंद्रीय मंत्री सुषमा स्‍वराज भी उठा चुकी हैं। शिक्षा के आसन्‍न भगवाकरण और देश में फैले साम्‍प्रदायिक माहौल के बीच नोबल पुरस्‍कार विजेता सत्‍यार्थी के पांचजन्‍य में छपे इस अहम साक्षात्‍कार के कुछ अंश हम यहां साभार पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। -मॉडरेटर 



कैलाश सत्‍यार्थी 



नोबल पुरस्कार ग्रहण करते समय आपने अपने भाषण की शुरुआत वेद मंत्रों से की थी। इसके पीछे क्या प्रेरणा थी?
शांति के नोबल पुरस्कार की घोषणा के बाद जब मुझे पता चला कि भारत की मिट्टी में जन्मे किसी भी पहले व्यक्ति को अब तक यह पुरस्कार नहीं मिल पाया है तो मैं बहुत गौरवान्वित हुआ। अपने देश और महापुरुषों के प्रति नतमस्तक भी। मैंने सोचा कि दुनिया के लोगों को शांति और सहिष्णुता का संदेश देने वाली भारतीय संस्कृति और उसके दर्शन से परिचित करवाने का यह उपयुक्त मंच हो सकता है। मैंने अपना भाषण वेद मंत्र और हिंदी से शुरू किया। बाद में मैंने उसे अंग्रेजी में लोगों को समझाया। मैंने
संगच्छध्वम् संवदध्वम् संवो मनांसि जानताम्
देवा भागम् यथापूर्वे संजानानाम् उपासते!!
का पाठ करते हुए लोगों को बताया कि इस एक मंत्र में ऐसी प्रार्थना, कामना और संकल्प निहित है जो पूरे विश्व को मनुष्य निर्मित त्रासदियों से मुक्ति दिलाने का सामर्थ्य रखती है। मैंने इस मंत्र के माध्यम से पूरी दुनिया को यह बताने की कोशिश की कि संसार की आज की समस्याओं का समाधान हमारे ऋषि मुनियों ने हजारों साल पहले खोज लिया था। बहुत कम लोग जानते होंगे कि मैंने विदेशों में भारतीय संस्कृति और अध्यात्म पर अनेक व्याख्यान भी दिए हैं। मेरे घर में नित्य यज्ञ होता है। पत्नी सुमेधा जी ने भी गुरुकुल में ही पढ़ाई की हुई है।

विदिशा से नोबल पुरस्कार मंच तक की यात्रा में आप ने अलग-अलग सीढि़यां चढ़ीं, इस सीढ़ी में संस्कृत भाषा को आप कहां देखते हैं?
मुझे आध्यात्मिक गहराई तक ले जाने में संस्कृत का बहुत बड़ा योगदान है। बचपन से ही मुझे धार्मिक अनुष्ठानों में गहरी रुचि थी। बहुत कम लोग विश्वास कर पाते हैं कि 12-13 वर्ष की उम्र में ही मुझे रामचरितमानस कंठस्थ हो गई थी। मैं एक ही बैठकी में इसका पाठ कर लेता था। लोग मुझे इसके पाठ के लिए अपने घर बुलाते... उसके बाद मैंने उपनिषदों को पढ़ना शुरू किया। बाद में मैं आर्य समाज से जुड़ गया तो अध्यात्म में और दिलचस्पी बढ़ गई। इसके लिए मेरा संस्कृत सीखना जरूरी था। जिस भाषा में मूल रचनाएं होती हैं और जो गहरा भाव उनमें होता है, अनुवाद की भाषा में वह भाव उतनी गहराई से नहीं आ पाता। मैं तो किशोरावस्था में ही अध्यात्म में इतने गहरे उतर गया था कि 15-16 साल की उम्र में संन्यास लेना चाह रहा था।

तो फिर संन्यासी क्यों नहीं बने?
बचपन में मैं स्वामी विवेकानंद से बहुत प्रभावित था। उनको न केवल खूब पढ़ा बल्कि उनके जैसे बनने का सोचने भी लगा। मैंने पढ़ा कि उन्हें ईश्वर के दर्शन हुए थे। बस इसी से मेरे मन में संन्यास की भावना पैदा हुई। मैं संन्यास की तरफ अग्रसर हो रहा था कि इसी दौरान मेरा संपर्क आर्य समाज से हुआ। यह घटना तब की है जब मैं बीई के प्रथम वर्ष में था। आर्य समाज के द्वारा आयोजित एक भाषण प्रतियोगिता के दौरान मैंने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा। इससे इतना प्रभावित हुआ कि इंजीनियरिंग की किताबों के साथ-साथ मैंने आर्य समाज के साहित्य को पढ़ना शुरू कर दिया। बाद में मैंने सत्यार्थ प्रकाश की हिंदी में संक्षिप्त टीका भी की। स्वामी दयानंद के जीवन ने मुझे बहुत प्रभावित किया। स्वामी दयानंद ने बताया कि समाज के हाशिए पर खड़े व्यक्ति की सेवा में ही ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। मैंने संन्यास और मोक्ष का विचार छोड़ दिया और अपने को समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों की सेवा में लगा दिया। 

आपके आदर्श कौन रहे हैं या कहें कि आप को किस से ऊर्जा मिलती है?
बचपन में तो स्वामी विवेकानंद ही थे। बाद में किशोरावस्था में मुझे लगा कि महर्षि दयानंद जी को हमारे वेदों और उपनिषदों की गहरी समझ थी। उन्होंने जिस तरह से वेदों की वैज्ञानिक व्याख्या की है, उसने मुझे बहुत प्रभावित किया। आजादी के नायकों और क्रांतिकारियों की जीवनियों ने ही मुझे सामाजिक बदलाव के लिए प्रेरित किया। 

तो क्या आपने अपना उपनाम सत्यार्थी आर्य समाज यानी स्वामी दयानंद से प्रभावित होकर ही रखा है?
यह समाज में व्याप्त छुआछूत के खिलाफ मेरे विद्रोह की परिणति हैं। मैं बचपन से ही जाति व्यवस्था और छुआछूत का विरोधी था। किसी दोस्त ने कहा कि तुम हमेशा सामाजिक बुराइयों के खिलाफ विद्रोह करते रहते हो इसलिए उपनाम में विद्रोही जोड़ लो, तो किसी ने कहा कि हमेशा सच बोलते हो और सच के लिए लड़ते हो, इसलिए सत्यार्थी जोड़ लो। किसी ने कहा संस्कृत में कोविद हो, इसलिए कोविद लगा लो। मैं भी सत्यार्थ प्रकाश से बहुत प्रभावित था इसलिए उपनाम में सत्यार्थी ही जोड़ लिया। इस तरह से मैं कैलाश नारायण शर्मा से कैलाश सत्यार्थी बन गया।

आपने कहा कि आप आध्यात्मिक हैं और मानने में कम और जानने में ज्यादा विश्वास रखते हैं। एनजीओ क्षेत्र को लेकर सवाल उठते रहते हैं। यह बताइए कि इस काम में दूध कितना है और पानी कितना? और आपने इसे कैसे जाना है?
देखिए, सत्तर और अस्सी के दशक में बाल श्रम और बच्चों के अधिकारों को लेकर कोई भी संस्था या सरकार कुछ सोचती तक नहीं थी। साल 1989 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा बाल अधिकार घोषणापत्र जारी करने से पहले बच्चों के अधिकारों और सवालों को लेकर कोई आवाज तक नहीं थी। जब बाल अधिकार घोषणापत्र जारी हुआ और कई देशों ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए, जिसमें भारत भी शामिल था, उसके बाद तो बच्चों के लिए काम करने वालों की बाढ़ ही आ गई। नब्बे के दशक में बाल श्रम और बाल मजदूरी के खिलाफ मोर्चा संभालने के लिए कई संस्थाएं खड़ी हो गईं। हालांकि इनमें से ज्यादातर संस्थाएं पहले ग्रामीण विकास, महिला सशक्तीकरण और स्वास्थ्य आदि पर काम करती थीं। इनमें कई गांधीवादी संस्थाए भी थीं। लेकिन, जब संस्थाओं को विदेशी धन और सरकारी पैसा मिलने लगा तो लोग संस्था बनाकर लाभ कमाने लगे। सरकारी अधिकारियों और नेताओं की पत्नियों व बच्चों ने भी संस्थाएं बना लीं। अब 'सोशलाइट' और 'फैशनेबल' सिविल सोसायटी भी तैयार हो गई हैं। मैंने अपने 40 साल के सार्वजनिक जीवन में सब तरह के उतार-चढ़ाव देखे हैं। इसमें समाज में जनचेतना का ज्वार भी देखा है तो आंदोलनों में क्रांतिकारी विचारों से ओत-प्रोत युवा शक्ति का जोश भी। वैचारिक प्रदूषण फैला रहे और बुद्धि विलासिता कर रहे उन एनजीओ को भी देखा है जिन्होंने सामाजिक बदलाव और समाज कल्याण को कारोबार बना दिया है। फाइव स्टार होटलों में मीटिंग और पार्टियां करने वाले और शराब, पैसे व ताकत के नशे में चूर इन लोगों को भूख और गरीबी का न तो संज्ञान है और न ही सरोकार। इनमें से अधिकांश लोग समाज के हाशिए पर खड़े जिस व्यक्ति के नाम पर करोड़ों रुपये का चंदा ले रहे हैं और बढि़या रपट बना रहे हैं, उस गांव के गरीब को तो उन्होंने देखा तक नहीं है। पिछले करीब दो दशकों में एनजीओ का एक वर्ग सामाजिक बदलाव का नहीं बल्कि करियर बनाने का जरिया बन गया है।

लोग एनजीओ को करियर, दुकानदारी और मुनाफे का माध्यम समझते हैं। मैं देखता हूं कि जो दानदात्री संस्थाए हैं उनका अपना भी एक एजेंडा है। मेरा इन संस्थाओं से हमेशा से झगड़ा रहा है। दुनिया में हर जगह भले लोग हैं और वह भले लोग चाहते हैं कि समाज का कुछ भला हो। उनके पास पैसा भी है और वे दान भी देते हैं। वह लोग जिन संस्थाओं को पैसा देते हैं उनसे कुछ उम्मीद भी नहीं करते, सिवाय इसके कि पैसा ईमानदारी से उस उद्देश्य के लिए खर्च हो जिसके लिए दिया जा रहा है। लेकिन दूसरी तरफ कई बड़ी संस्थाए हैं जिनके अपने एजेंडे हैं जिनकी पहचान कर पाना अब मुश्किल नहीं है, जो पहले इंटरनेट के न होने से मुश्किल था। हमारे संगठन का पूरे साल का उतना खर्च नहीं होता, जितना ऐसी किसी दानदात्री संस्था के सीईओ की सैलरी होती है। जबकि हम सैकडों बच्चों को छुड़वा रहे हैं। उन्हें पुनर्वासित करके शिक्षा दिलवा रहे हैं।

अभी आप ने जैसा बताया कि दानदात्री संस्थाओं का अपना एक एजेंडा होता है। भारत के संदर्भ में वह एजेंडा क्या हो सकता है?
देखिए, कई तरह के लोग हैं। कॉरपोरेट जगत और राजनीति के लोग भी अब अपने मकसद के लिए एनजीओ बना रहे हैं। धर्म परिवर्तन के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। एनजीओ गरीबी के नाम पर पैसा बनाने की मशीन बन रहे हैं। ऐसे में सबका अपना अलग-अलग एजेंडा है। कई संस्थाएं नक्सलवाद से प्रभावित हैं जो कहीं न कहीं हिंसा को बढ़ावा देती हैं। यह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है। इनको पैसा उन संस्थाओं से मिलता है जो कहने को तो समाजिक विकास के लिए कार्य कर रही हैं, लेकिन असल में उनका चरित्र ऐसा है नहीं। मेरा यह निजी अनुभव है कि मोटे अनुदान, सुविधाओं और विदेशी यात्राओं का लालच देकर अंतर्राष्ट्रीय संगठन भारत के एनजीओ समुदाय को तोड़ते और एक दूसरे से लड़वाते भी है।

क्या मानवाधिकार भी ऐसा ही मुद्दा है?
नहीं। समाज कल्याण, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, महिला सशक्तीकरण और पर्यावरण रक्षा के लिए उठाए गए कदम से वास्तव में मानवाधिकारों की रक्षा होती है, लेकिन मानवाधिकार की आड़ में छद्म एजेंडा बढ़ाना गलत है। 

कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाए हैं जो एजेंडे के साथ दानदात्री संस्थाओं को चला रही हैं। इसके पीछे आपको क्या ताकत नजर आती है? क्या ये अपने आप में संगठित तौर पर बहुत मजबूत हैं या पीछे से कोई और समर्थन भी मिलता है?
अब पर्दे के पीछे क्या चल रहा है, यह तो मुझे भी नहीं पता, लेकिन जहां तक हमारे संगठन का सवाल है, उसकी दिशा और काम को लेकर हम बिल्कुल स्पष्ट हैं। हमारा साफ मानना है कि किसी भी उद्योग को नुकसान पहुंचाने से इस समस्या का समाधान नहीं होने वाला है। हमारी दुश्मनी उद्योग से नहीं बल्कि उस बुराई से है, जो उस उद्योग में नहीं होनी चाहिए। इनको दूर करने के लिए संविधान, कानून और अंतरराष्ट्रीय मापदंड हैं।

 यह देश 'सेकुलर' है और जय राम जी करके आप इतने आगे आ गए?

(हंसते हुए) जी, हमने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।  मैं शुद्घ शाकाहारी हूं और शराब व मांसाहार का घोर विरोधी हूं। कभी किसी दानदात्री संस्था के व्यक्ति के लिए हमारी संस्था ने शराब और मांस की व्यवस्था नहीं की जबकि लोग कहते हैं यह तो छोटी सी बात है। आप छोटी-छोटी बातों पर क्यों अड़े रहते हैं। संस्थाएं मुद्दे उठाती रहती हैं। कई ऐसे मुद्दे भारत में भी हमारे साथी संगठनों ने उठाए लेकिन बाद में हमें पता लगा वह यह मुद्दे इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि जिनसे उन्हें पैसा मिल रहा है, वह लोग यह सब उनसे करवा रहे हैं। यानी पैसा देने वाला इस शर्त पर पैसा दे रहा है कि तुम यह सवाल उठाओगे।जब समाज की समस्याओं और उसका समाधान जनता से पूछे बगैर पैसा देने वाला निर्धारित करेगा तो फिर बदलाव कैसे आएगा? हमने कभी भी सत्य, करुणा, धर्म और कर्म का मार्ग नहीं छोड़ा मैंने  न तो कभी भारतीयता, राष्ट्रीय गौरव और अपनी महान संस्कृति के साथ समझौता किया है और न ही कभी करूंगा।

गुजरात दंगों में गैर-सरकारी संगठनों की बहुत किरकरी हुई थी। एक संगठन पर तो वित्तीय अनियमितताओं के गंभीर आरोप भी लगे। जांच में पता चला कि उस संगठन को दान में जो पैसा मिला था उसमें से एक बड़ी रकम से सजने-संवरने का सामान खरीदा गया था। ऐसे कामों को आप किस तरह से देखते हैं?
देखिए, जिन मुद्दों के लिए और जिन कामों के लिए हमें लोगों से पैसा मिलता है, हमारी नैतिक जवाबदेही उन्हीं के लिए सबसे ज्यादा होनी चाहिए। जहां तक गुजरात दंगों के संबंध में कुछ गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका की बात है तो इस बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन अखबारों से पता चला है कि इस मामले की अभी न्यायिक जांच चल रही है। मैं देखता हूं कि आज गैर-सरकारी संगठनों में नैतिक जवाबदेही का बहुत अभाव है बल्कि नैतिकता की कमी दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। अगर आप किसी सामाजिक मुद्दे के साथ चल रहे हैं तो आपकी नैतिक जवाबदेही तो बनती ही है। अगर आपको बेहतर भारत और बेहतर समाज बनाना है तो यह जवाबदेही अनिवार्य है।

आपने जो बातें बताईं, वह नक्सलवाद और कन्वर्जन पर साफ दिखाई देती हैं। आपको कहीं लगता है कि सेकुलरवाद का लबादा ओढ़कर कोई एक लॉबी है जो काम कर रही है?
देखिए, हमारा जो दर्शन है वह सर्वधर्म समभाव का दर्शन है। यह दुनिया का महानतम दर्शन है। इस दर्शन में दुनिया की सभी समस्याओं का हल और सभी प्रश्नों का उत्तर है लेकिन यह दु:ख की बात है कि लोगों ने जाति, पाखंड और कर्मकांड के नाम पर उसका सत्यानाश कर दिया है। हमारा जो मूल दर्शन है वह सर्वे भवन्तु सुखिन: और वसुधैव कुटुम्बकम् के आधार पर है।
अयं निज: परोवेति, गणनां लघु चेतसाम्।
उदार चरितानाम् तु, वसुधैव कुटुम्बकम्।

हमारा वेद तो वसुधैव कुटुम्बकम् की बात करता है। हमारी संस्कृति हमारा देश इन्हीं मूल्यों पर तो खड़ा है। इन मूल्यों में किसी भी तरह की हिंसा और धोखाधड़ी का स्थान नहीं है। मैं अंहिसा में विश्वास रखता हूं। मैं चाहता हूं कि दुनिया में हर समस्या का समाधान अहिंसा से ही हो। हम जिन बातों में उलझे हुए हैं, वे बहुत ही सतही और उथली बातें हैं। हम शांति की बात करते हैं। पूरे ब्रह्मांड की शांति की बात करते हैं। हम दुनिया में शांति के लिए शांति पाठ करते हैं। ॐ द्यौ: शांति: अंतरिक्ष शांति: पृथ्वी: शांति़: आप: शांति़: - यह जो पूरा का पूरा शांति पाठ है यह दुनिया को शांति का संदेश देता है।

पूरी दुनिया में हिंसा फैली हुई है। ऐसे में विश्व शांति में आप भारत की क्या भूमिका देखते हैं।
हजारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने समाज में ही नहीं, जल-वायु, पेड़-पौधे, वनस्पति और औषधि तक में शांति स्थापना की बात की है। आज इतने सालों बाद समुद्र को शांत और सुरक्षित रखने की बात को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने स्वीकार किया है। भारत में एक तरफ जहां आर्थिक रूप से संपन्न राष्ट्र बनने की संभावना है, हमारे आध्यात्मिक दर्शन की जो गहराई है, उस गहराई में से वर्तमान समस्याओं का समाधान निकालकर हम दुनिया के सामने रखें। मैं दुनिया में जगह-जगह वेद मंत्रों को कई बार बोलता हूं। लोग सुनते हैं, समझते हैं और आत्मसात करने की बात करते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि हमारी जो आध्यात्मिक बुनियाद है और वह जिन मूल्यों पर खड़ी है, उन मूल्यों की सही ढंग से व्याख्या, पालन और लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रचार का काम नगण्य हुआ है। कई देशों में नौजवानों की संख्या बहुत ज्यादा है। भारत भी उनमें से एक है। हमारे पास जो आध्यात्मिक ज्ञान है उस पर ज्यादा गर्व होना चाहिए, क्योंकि यह ज्ञान दुनिया में सिर्फ हमारे पास है। मैं संप्रदायों, मतों और पंथों को धर्म नहीं मानता। धर्म एक ही है संसार में। मनुस्मृति में कहा गया है धार्यते इति धर्म:। यानि मनुष्य के लिए धारण करने वाले जो गुण होते हैं वही धर्म हैं। मनुस्मृति में ही इसकी व्याख्या है-
धृति: क्षमा दमोस्तेयं, शौचमिन्द्रिय निग्रह।
धीर्विद्या सत्यमक्रोध:, दशैकं धर्म लक्षणं।
क्षमा, सत्य, अक्रोध, करुणा, आत्म नियंत्रण आदि दस मानवीय गुणों का जो पालन करता है वही धार्मिक है। इसके अलावा कोई धर्म नहीं है।

आपने कहा कि बच्चों के सवाल पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के बाद बहुत सारी गांधीवादी संस्थाएं चोला बदलकर बच्चों के काम में लग गईं। आपको लगता है कि गांधी जी के मूल विचार और उनके नाम पर जो देश में चल रहा है, उसमें बहुत बडा फर्क है?
लोहियाजी कहते थे कि तीन तरह के गांधीवादी होते हैं। एक सरकारी गांधीवादी जो सत्ता में बैठ गए हैं। दूसरे मठी गांधीवादी जो इस तरह की संस्थाएं चला रहे हैं और तीसरे कुजात गांधीवादी। लोहियाजी खुद की तुलना करते हुए कहते थे कि वे गांधीवादी तो हैं लेकिन कुजात गांधीवादी। मुझे लोहिया जी की इन बातों ने बहुत प्रभावित किया। लोगों का मानना है कि कैलाशजी पर गांधीवाद का प्रभाव है। मैं यह मानता हूं कि गांधी जी ने एक महान काम किया जो कोई भी नहीं कर पाया। मेरा मानना है कि दुनिया में जितने भी क्रांतिकारी हैं वह सब राष्ट्र की सेवा के अपने जुनून की वजह से क्रांतिकारी बने, लेकिन गांधी जी मेरी नजर में एकमात्र ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने भारतीय आध्यात्मिक मूल्यों को जन-आंदोलन में परिवर्तित किया। सत्य और अहिंसा की बात हम लोग मंदिरों में ही समझते थे, लेकिन जो सत्य है वह ईश्वर का ही एक प्रतिबिंब है। जिन बातों को हम मंदिर, मस्जिद और चर्च में पढ़ा और सुना करते थे, गांधी जी ने उन्हीं बातों को आधार बनाकर शांति, अहिंसा और सत्य के माध्यम से कई जन-आंदोलन खड़े किए। वह सब हमारे आध्यात्मिक मूल्यों से जुड़ी हुई बातें थीं तो जनता भी उनसे जुड़ने लगी। हम भारतीयों के खून में ही शांति है। 

यह मौका भुनाने से ज्यादा भाव जगाने वाले हैं या मौका भुनाने के लिए लोग खड़े हो जाते हैं?
हमारे आंदोलन के शुरू में जो लोग जुड़े थे वे आज की पीढ़ी से बहुत अलग थे। अब तो इनमें से कई लोगों का स्वर्गवास भी हो चुका है। जो नई पीढ़ी के लोग आते हैं अगर उन्हें कहीं थोड़ा ज्यादा पैसा मिलता है तो वह वहां दौड़े चले जाते हैं। मेरे शुरुआती साथियों और वरिष्ठ सहयोगियों ने सामाजिक कार्य में बेहतर नौकरी और पैसे का लालच कभी नहीं किया। हिंदुस्तान समाचार के संस्थापक और राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के प्रचारक बालेश्वर अग्रवाल जी हमारे पिता समान थे। मेरी पत्नी उनकी दत्तक पुत्री समान थीं। वह हमारी सगाई करवाने विदिशा भी आए थे। मेरे उनके संबंध बहुत अच्छे थे। वह मुझे दामाद मानते थे। एक बार शादी के बाद दिल्ली में हमारे घर आए। तब हम लोगों के पास बिस्तर नहीं थे, अखबार के बंडल के ऊपर दरी बिछाकर हम सोते थे। घर की हालत देखकर उन्होंने मुझे नौकरी का ऑफर दिया, लेकिन मैंने मनाकर दिया। एक बार मेरे कॉलेज के प्राचार्य, जो मुझसे बड़ा स्नेह करते थे, मेरे घर आए। उन्होंने भी मेरी हालत देखी तो दिल्ली के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में मेरे लिए अध्यापन की व्यवस्था कर दी। मैंने उसे भी ठुकरा दिया। मैंने कहा जिसका संकल्प लिया है वही करूंगा। एक तरफ हमारे बेटे के लिए दूध और फल जरूरी था तो दूसरी तरफ गुलाम बच्चों को आजाद करना था। मैंने दूसरा विकल्प चुना। हम तब एनजीओ जानते भी नहीं थे। मित्रों की आर्थिक मदद से ही सामाजिक बदलाव में जुटे हुए थे।

(साभार: पांचजन्‍य) 
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