Friday, August 31, 2012

अपने वतन में पराए

अपने वतन में पराए

Friday, 31 August 2012 10:31

प्रफुल्ल कोलख्यान 
जनसत्ता 31 अगस्त, 2012: अपने मूल भाषा-क्षेत्र से बाहर रह कर छोटे-मोटे रोजगार और खुदरा कारोबार में लगे लोगों को 'बाहरी' होने का भारी दबाव झेलना पड़ रहा है। ऐसा लगता है कि राज्य सरकारों की निगाह में राज्य से बाहर के लोग बोझ होते हैं जिनके नागरिक अधिकार सुनिश्चित करना उनका दायित्व नहीं है। 
भारतीय राजनीति इस समय चुनाव जीतने की तात्कालिकता में सांस ले रही है। चुनावी तात्कालिकता और भारतीयता के विन्यास को बचाए रखने की दीर्घकालिकता के बीच संतुलन को साधने के धैर्य का अभाव कमोबेश सभी राजनीतिक दलों में  दिखाई देता है। राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने के कारण भी यह अभाव उनका सामान्य चरित्र बन गया है। यहां नागरिक जमात की एक गहरी भूमिका बन सकती है। लेकिन नागरिक जमात इस समय भ्रष्टाचार के मुद््दे पर केंद्रित होकर भी भ्रष्टाचार के मूल कारणों की उपेक्षा ही कर रही है। कहना न होगा कि भ्रष्टाचार का गहन संबंध मुनाफेबाजी से है। बाजार के नए व्याकरण में शुभ तो गायब हो ही गया है लाभ भी चुपके से मुनाफाखोरी में बदल गया है। कारण कुछ भी हो, स्थिति यह है कि नागरिक जमात फिलहाल इस पर लगभग चुप ही है।
आजादी के आंदोलन के दौरान भारतीयता नए स्तर पर संगठित हो रही थी। कुछ छोटे कालखंडों को छोड़ दिया जाए तो भारत कभी एक राजनीतिक इकाई नहीं था। इसके बावजूद आजादी के आंदोलन के दौरान स्थानीय समस्याओं के निदान के लिए राजनीति राष्ट्रीयता की ओर बढ़ती थी और आज की स्थिति यह है कि वह राष्ट्रीय समस्याओं का हल क्षेत्रीयता में ढंूढ़ती है। भारत एक राजनीतिक इकाई न होने की स्थिति में भी हमेशा एक सांस्कृतिक इकाई रहा है।
भारत बड़ा और सांस्कृतिक रूप से जटिल संरचना वाला देश है। पुराने को बनाए रखते हुए नए का समावेशन इसकी सांस्कृतिक विशेषता है। कोशिश करने पर भी अनुपयोगी और अप्रासंगिक हो चुके कई पुराने जीवन-प्रसंगों से भारतीय संस्कृति का पिंड छूटता नहीं और नए मूल्यबोध से भारतीय संस्कृति अलग-थलग रह नहीं पाती है। इसलिए यह बोझिल, जटिल और अंतर्विरोधी भी है। यह इसकी बनावटका अपना अनिवार्य वैशिष्टय है। जब नजर पुरानेपन पर ठिठक जाती है तब यह निष्कर्ष मिलने लग जाता है कि भारत बिल्कुल नहीं बदल रहा है। जब नजर नएपन से चौंधिया जाती है तो लगने लगता है कि पुराना जो भी था नष्ट हो गया। कबीर को याद करें तो इन दोनों राह न पाई। सच तो यह है कि पूरी दुनिया के साथ भारत भी बदलाव के दौर से गुजर रहा है। इस बदलाव में अच्छा और बुरा दोनों शामिल हैं। 
इस बदलाव की भाषा को पढ़ा जाना चाहिए। खासकर इसकी राष्ट्रीय संरचना में हो रहे बदलाव के संकेतों को पढ़ा जाना इसलिए भी जरूरी है कि आज का हासिल भारत राष्ट्रवाद के उपकरणों से निर्मित है। पूरी बीसवीं सदी दुनिया में राष्ट्रवाद के बोलबाले की सदी रही है। इक्कीसवीं सदी बाजारवाद की सदी है। राष्ट्रवाद और बाजारवाद के अंतर्विरोध, अंतर्घात और अंतर्मिलन से राष्ट्रीय संरचना में हो रहे बदलाव का गहरा संबंध है।
राष्ट्रवाद का गहरा संबंध मानव-श्रम की तुलना में मशीन के बढ़ते वर्चस्व से रहा है। यहां याद करना प्रासंगिक है कि औद्योगिक क्रांति के दौर में मशीन के इस्तेमाल से उत्पादन प्रक्रिया में जबर्दस्त तेजी आई। इसके कारण प्रचुर मात्रा में कच्चे माल को लाने और बड़े पैमाने पर तैयार माल को खपाने की जरूरत पैदा हुई। उत्पाद का संबंध मनुष्य की जरूरत से ज्यादा मुनाफे से होता गया। औद्योगिक और व्यापारिक पूंजी, दोनों ही मुनाफे से संचालित होने लगीं। औपनिवेशिक शक्तियों की सक्रियता बढ़ी। इससे राष्ट्रवाद एक ऐसी राजनीतिक संरचना के रूप में विकसित हुआ जो औपनिवेशिक शक्तियों को भी मजबूत बनाता था और उनके चंगुल से बचाव की भी प्रेरणा बनता था। कहने की जरूरत नहीं कि पूंजी में राष्ट्रीयता का तत्त्व शामिल हो गया। 
पूंजी में निहित मुनाफे की आकांक्षा के टकरावों को पूंजी की राष्ट्रीयताओं के टकरावों में बदलते देर नहीं लगी। फलस्वरूप दुनिया को विश्व-युद्धों की त्रासदी से गुजरना पड़ा। विश्व-पूंजी ने इससे कुछ सबक भी ग्रहण किया। पूंजी की महत्त्वाकांक्षा को युद्ध से परहेज नहीं है। लेकिन विश्व-ध्वंस से उसे अवश्य डर लगता है। विभिन्न राष्ट्रों के एटमी हथियारों से लैस हो जाने से इस विध्वंस के खतरे में होने वाली अतिरिक्त वृद्धि का पाठ पूंजीवाद के लिए बहुत मुश्किल नहीं था। हालांकि 1946 से ही परमाणु अप्रसार के प्रयास हो रहे थे, लेकिन दुनिया के एक-ध्रुवीय बनने की ओर बढ़ने के ठीक पहले परमाणु अप्रसार के उपायों पर बहुत जोर दिया जाने लगा। 
दुनिया भर में पूंजीवाद की राजनीतिक जरूरतों के अनुसार राष्ट्रवाद विकसित हुआ और राष्ट्रवाद की राजनीतिक जरूरत के अनुसार जनतंत्र। लेकिन पूंजीवाद और जनतंत्र में आत्म-विरोध है। पूंजीवाद अनिवार्य रूप से विषमता का आधार तैयार करता है, जबकि यथासंभव समता जनतंत्र के प्राण का मूलाधार है। पूंजीवाद जनतंत्र को समता की ओर नहीं बढ़ने देता। लेकिन समता की ओर बढ़ने का प्रयत्न करते हुए दिखे बिना जनतंत्र अपनी विश्वसनीयता ही नहीं बना पाता। 
जनतंत्र को अपनी विश्वसनीयता कायम करने के लिए जरूरी है कि वह समता की ओर भले न बढ़े, पर इसका प्रयास करता हुआ दिखे अवश्य। कपट लंबे समय तक नहीं चलता। एक समय के बाद यह कपट प्रकट होने लगा और जनतंत्र की विश्वसनीयता कम होने लगी।
जनतंत्र का क्षरण राष्ट्रवाद को धीरे-धीरे निरर्थक बना देता है। राष्ट्रवाद की सिकुड़न से बनने वाली राजनीतिक शून्यता को साम्राज्यवाद बाजारवाद से भरने की कोशिश करता है। जनतंत्र का स्थानापन्न बन कर आने वाला बाजारवाद स्वाभाविक रूप से जनकल्याण का आश्वासन लेकर आता है। इसको विकास के मुहावरे में समझा और समझाया जाता है। 

अब चूंकि जनकल्याण का प्राण विकास में बसता है और विकास को बाजारवाद ही सुनिश्चित कर सकता है, इसलिए खुद सिद्ध हो जाता है कि जनकल्याण का रास्ता बाजारवाद से होकर ही गुजरता है। विकास के नए वातावरण में भारत बदल रहा है। इसके कारण भारत की अंदरूनी हलचल और बेचैनी बढ़ रही है। इसे समझने का प्रयास जरूरी है।
आजादी के आंदोलन के दौरान और आजादी मिलने के बाद पहले दौर में भारत की राष्ट्रीय संरचना राष्ट्रवाद और जनतंत्र के सापेक्ष विकसित हुई। यह संरचना अब बाजारवाद और विकास की सापेक्षता में बदल रही है। जाहिर है, इस बदलाव को समझने के लिए विकास के चरित्र को समझना होगा। विकास के लिए चाहिए पूंजी। चूंकि राष्ट्र ही सिकुड़ रहा है इसलिए स्वाभाविक है कि पूंजी की राष्ट्रवादी पहचान भी खत्म हो रही है। पूंजी है देशी-विदेशी पूंजीपतियों के पास। पूंजी चाहे देशी हो या विदेशी, उसका स्वाभाविक लक्ष्य है निष्कंटक मुनाफा। यह मुनाफे का कांटा ही था जिसके चलते पश्चिम बंगाल में लगा कारखाना उखड़ कर अपेक्षया निष्कंटक मुनाफा-क्षेत्र गुजरात चला गया। मुनाफे के कांटे पर भी गौर करना जरूरी है। 
जिस तरह पूंजी का लक्ष्य होता है निष्कंटक मुनाफा, उसी तरह आम आदमी का लक्ष्य होता है निर्बाध रोजगार। हमारी सरकारों की राजनीतिक कुशलता यह होनी चाहिए कि वे मुनाफे के कांटों और रोजगार की बाधाओं, दोनों को व्यावहारिक स्तर पर कम करें। कठिनाई यह है कि मुनाफे के कांटे कम करने पर रोजगार निर्बाध नहीं रह पाता। रोजगार की बाधाओं को कम किया जाए तो मुनाफा में कांटे बढ़ जाते हैं। यहीं राजनीतिक कुशलता की जरूरत होती है। एक बात और समझने की है कि पूर्णत: अंतर्विरोध-मुक्त सिर्फ यूटोपिया होता है। जीवन को अंतर्विरोधों में सामंजस्य साधते हुए ही आगे बढ़ना पड़ता है। 
राष्ट्रवाद के दौर से बाहर निकलते ही क्षेत्रीयता, राष्ट्रीयता और नागरिकता के अंतर्संबंध में एक भिन्न तरह का तनाव उत्पन्न हो रहा है। इसके कारकों को समझना होगा। भारत के सभी क्षेत्रों में एक तरह की विकास प्रक्रिया नहीं चल रही है। सभी क्षेत्रों में जनसंख्या और राजनीतिक गुणवत्ता भी एक जैसी नहीं है न कुदरती और सांस्कृतिक समृद्धि एक जैसी है। जाहिर है, शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, आवास, रोजगार सहित सामाजिक सुरक्षा और नागरिक अधिकार की उपलब्धता सभी जगह एक जैसी नहीं है। 
नागरिकता राष्ट्रीय है, लेकिन नागरिक अधिकार से जुड़े शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, आवास, रोजगार सहित सामाजिक सुरक्षा के अधिकार की उपलब्धता एक क्षेत्रीय प्रसंग बनती जा रही है। रोजगार और बेहतर जिंदगी की तलाश में लोग पूरी दुनिया का चक्कर लगाते हैं। भारत के एक क्षेत्र के लोग दूसरे क्षेत्र में अधिकारपूर्वक जाते हैं। लेकिन नागरिक अधिकार के क्षेत्रीय प्रसंग बनते जाने से अपने मूल क्षेत्र से बाहर रहने वाले लोगों को कदम-कदम पर यह अहसास होने लगा है कि उनका नागरिक अधिकार मूल निवासियों से कमतर है। वैधानिक स्थिति चाहे जो हो, वास्तविक स्थिति यही है।
चुनाव में प्राप्त वोट-प्रतिशत या अपनी विचारधारा के तर्क पर खुद को राष्ट्रीय दल बताने वालों में भी क्षेत्रीयता का मनोभाव बढ़ रहा है, क्षेत्रीय दलों में तो वह है ही। राष्ट्रवाद के दायरे से बाहर निकल कर बाजारवाद के परिसर में प्रवेश करने के उपक्रम में राष्ट्रीय संरचना बुरे अर्थ में क्षेत्रीयता के दबाव में है। अधिकतर मामलों में राज्य सरकारें न सिर्फ क्षेत्रीयता के दबाव में काम कर रही हैं, बल्कि क्षेत्रीय भावनाओं को खतरनाक ढंग से उभारे रखने की कोशिश भी लगातार करती रहती हैं। 
राजनीतिक विकास-क्रम को देखने पर यह बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि केंद्र में किसी एक दल की सरकार बनने के दिन नहीं रहे। भारतीय राज्य और भारतीय संघ के पारस्परिक संबंध को व्याख्यायित करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के साक्ष्य से यह प्रमाणित है कि भारत की राष्ट्रीय संरचना का मूल चरित्र एकात्मक है। राष्ट्र के एकात्मक होने और सरकार के संघात्मक बनने की संभावनाओं के कारण तीखा अंतर्विरोध उभर रहा है। राष्ट्र और सत्ता की संरचना पर इसका दूरगामी असर पड़ सकता है। तात्कालिक असर तो अपने मूल राज्य से बाहर निकल कर छोटे-मोटे रोजगार तलाशने या खुदरा कारोबार करने वालों पर दिखने लगा है। 
एक तरफ खुदरा क्षेत्र में बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के लिए जगह बनाने की कोशिश हो रही है, तो दूसरी ओर, अपने ही राज्य में छोटे-मोटे कारोबारियों के लिए जगह कम पड़ रही है। ऐसे में भिन्न राज्य से रोजगार या खुदरा कारोबार की तलाश में आने वाले भारतीय नागरिक को बाहरी बता कर व्यावहारिक स्तर पर बाहर कर देने की स्थिति बन रही है। इसमें जो प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं उनसे नागरिक अधिकार खंडित होता है। 
यहां राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों की एक सकारात्मक भूमिका के लिए महत्त्वपूर्ण जगह है। लेकिन क्षेत्रीयता की भावनाएं उभार कर अपना हित साधने में लगे राजनीतिक दलों और क्षेत्रीयता के दबाव में काम करने वाली सरकारों से इस सकारात्मक भूमिका की अपेक्षा कैसे की जाए! इस मामले में स्थिति काबू से बाहर होने के पहले ही राष्ट्र को कानूनी प्रावधान करने के बारे में सोचना चाहिए।

Fwd: [initiative-india] प्रेस नोट: भ्रष्टाचार जांच प्रकरण में म. प्र. हाई कोर्ट के सक्त आदेश:



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From: NAPM India <napmindia@napm-india.org>
Date: 2012/8/31
Subject: [initiative-india] प्रेस नोट: भ्रष्टाचार जांच प्रकरण में म. प्र. हाई कोर्ट के सक्त आदेश:
To:


जबलपुर ३१ अगस्त, २०१२:                                                                                                         प्रेस नोट 

भ्रष्टाचार  जांच  प्रकरण  में  मध्य  प्रदेश  हाई  कोर्ट  ने  

राज्य  शासन  को  दिया  सक्त  आदेश


भ्रष्टाचार  जांच  सम्बंधित  अधिकारियों  के  तबादले  के  न्या . 

झा  जांच आयोग की  मांग  पर  राज्य  शासन  जवाब  दे


राज्य  शासन आयोग   को  पूरी  अर्थ  सहायता  प्रदान करे 


हाई  कोर्ट  ने . झा  जांच आयोग  से २ महीनों में माँगा प्रगति  अहवाल 


जबलपुर ३१ अगस्त, २०१२: आज  मध्य  प्रदेश  उच्च  न्यायालय  के  माननीय  न्या . श्री  के. के. लाहोटी जी और  माननीय न्या . श्री  अजीत  सिंह  जी  के   खंडपीठ  ने  नर्मदा  बचाओ  आन्दोलन  की   भ्रष्टाचार  सम्बन्धी जन  हित  याचिका  के अंतर्गत   दाखिल   की   गयी   विभिन्न    अंतरिम   अर्जियों   और मा. न्या झा आयोग के पत्रों   के आधार  पर कुछ  महत्वपूर्ण  आदेश पारित  किये |


आज सुनवाई के दौरान, याचिकाकर्ता  नर्मदा  बचाओ आन्दोलन  की तरफ  से सामाजिक कार्यकर्ता मेधा  पाटकर  ने न्यायालय  को गंभीरता  के  साथ   सूचित  किया  कि  13 - 4 - 2011 को ही , याने कि16 महीने  पूर्व  से , झा आयोग ने प्रमुख  सचिव , मध्य  प्रदेश  शासन को एक  पत्र  लिखकर  मांग की थी  कि बड़वानी , धार  और खरगोन  जिलों   में पदस्थ  सभी  पुनर्वास सम्बन्धी अधिकारी  - कर्मचारी  जिनका कार्य फर्जी  रजिस्ट्री   जांच में शामिल  है , उन्हें  डूब क्षेत्र से अन्यत्र स्थानों पर तबादला किया जाए, ताकि जाँच किसी भी तरीके से प्रभावित न हो | 


मगर अपने ही अधिकारियों द्वारा किये गए  भ्रष्टाचार को उजागर करने में राज्य  सरकार क़ी उदासीनता के कारण, आज तक इस पत्र पर कोई ठोस कार्यवाही नहीं की गयी है | आन्दोलन ने भी याचिका लगाकर, महत्वपूर्ण दस्तावेज एवं  गवाहों को प्रभावित करने वाले सभी पुनर्वास सम्बन्धी अधिकारी  - कर्मचारी के तबादले क़ी  मांग अप्रैल, २०११ से क़ी है | दोनों पक्षों की बात सुनकर, मा. खंडपीठ ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि झा आयोग के उक्त  पत्र पर शासन द्वारा क़ी गयी कार्यवाही के सम्बन्ध में १४  सितम्बर , २०१२ तक शपथ  पत्र प्रस्तुत करे | 


सरदार  सरोवर  विस्थापितों  के  पुनर्वास  के  विविध  मुद्दों  पर  ४ सालों से चल  रही  झा आयोग की जांच में आ  रही आर्थिक और संसाधन  सम्बन्धी कठिनाइयों  के बारें  में  खंडपीठ  ने राज्य  शासन को सक्त   आदेश दिया  कि  आयोग    द्वारा  समय  - समय   पर मांगी  जा  रही सम्पूर्ण राशि  उसे   तत्काल   उपलब्ध   किया  जाए  | मेधा पाटकर ने आयोग के ही पत्र से पढ़ते हुए, बताया कि आयोग को आज भी काम करने के लिए लाखों रुपयों क़ी ज़रुरत है, जो उसे नहीं मिल  रहे हैं  | आयोग का आरोप है कि सामान्य प्रशासन विभाग के मुख्य  सचिव द्वारा सहयोग नहीं करना ही इसका कारण है | 


खंडपीठ ने झा आयोग को भी आदेश दिया कि अभी तक उसे उच्च  न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के तहत सौंपे  गए  कार्य तथा उसकी प्रगति के सम्बन्ध में और २ महीनों के अन्दर एक संक्षिप्त अहवाल प्रस्तुत  करे | आन्दोलन इन महत्वपूर्ण आदेशों का स्वागत करता  है | 


मध्य  प्रदेश  सरकार  की तरफ  से अधिवक्तआ  अर्पण  पवार  ने पक्ष  रखा  |  याचिकाकर्ता    की तरफ से मेधा पाटकर  ने न्यायालय  के सामने  हकीकत   प्रस्तुत  की | अगली  सुनवाई १४  सितम्बर , २०१२ को रखी  गयी  है  


राहुल यादव                           कैलाश अवास्या                             श्रीकांत 


संपर्क : ०९१७९१४८९७३ / ०७२९०-२९१४६४ 

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Narmada Bachao Andolan,
Narmada-Ashish, Off Kasravad Road,
Navalpura, Badwani,
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Fwd: invitation for the programme of Seema Azad and Vishwavijay in JNU



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From: reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com>
Date: Sat, Sep 1, 2012 at 3:55 AM
Subject: Fwd: invitation for the programme of Seema Azad and Vishwavijay in JNU
To: panini.anand@gmail.com


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From: banojyotsna ... <banojyotsna@gmail.com>
Date: Fri, Aug 31, 2012 at 11:51 PM
Subject: invitation for the programme of Seema Azad and Vishwavijay in JNU


friends
attached is the invitation for a convention organized by Revolutionary Cultural Front which will be held on the 3rd of September in SSS Auditorium JNU at 2pm. The convention titled "Uthane hi honge abhivyakti ke khatre: daman ke khilaf pratirodh ki sanskriti" is going to be an attempt to challenge the escalating state repression on democratic and cultural activists by the state. the speakers who will address the convention are going to be noted writers, poets, civil rights activists many of whom have faced state repression themselves. the main speakers will be

Seema Azad Vishwavijay Anjani Manager pandey Pankaj Bisht Mangalesh Dabral Madan Kashyap Ranjit Verma Neelabh Ashq Anuj Lugun Kapilesh Bhoj Prashant Rahi Vidrohi

we cordially invite you to come and join the programme and raise your voice against the ongoing state repression and onslaught on freedom of expression


with revolutionary greetings

Revolutionary Cultural Front, JNU

 



विकास कथा देश पर काबिज प्रोमोटर बिल्डर राज की सही अभिव्यक्ति!

विकास कथा देश पर काबिज प्रोमोटर बिल्डर राज की सही अभिव्यक्ति!

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा है कि जीडीपी की विकास दर में सालाना आधार पर भले ही गिरावट दिखाई दे रही है, पर तिमाही स्तर पर देखा जाए तो यह यह जनवरी-मार्च के 5.3 फीसदी के स्तर से बढ़कर 5.5 फीसदी पर आ गई है। यह छोटी ही सही, पर राहत की बात है। भारत के वित्तमंत्री को औद्योगिक विकास दर या कृषि विकास दर में गिरावट की परवाह नहीं है क्योंकि निर्माण क्षेत्र में विकास दर दहाई​ ​ में है। देश पर काबिज प्रोमोटर बिल्डर राज की सही अभिव्यक्ति है यह। घोटालों से सरकार त्रस्त है औ मैच फिक्सिंग के तहत संसद ठप है।अर्थ व्यवस्था पटरी पर कैसे आयेगी , इसकी चिंता किसी को नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने दैनिक ३२ रुपए के गरीबी के पैमाने की समीक्षा करने से ​​इंकार कर दिया। राजनीतिक डांवाडोल और पस्त आर्थिक हाल में इस देश का क्या होगा, तिरुपति में पूजा करते हुए वित्तमंत्री ने सोचा होता, तो शायद बेहतर होता।पिछले साल की चौथी तिमाही में विकास दर 5.3% रही थी। साल 2011-12 की पहली तिमाही में विकास दर 8.0% थी। पहली तिमाही में कृषि क्षेत्र (Agriculture) विकास दर साल-दर-साल 3.7% से घट कर 2.9% हो गयी है। उत्पादन (मैन्युफैक्चरिंग) की वृद्धि दर 7.3% से घट कर 0.2% पर आ गयी। हालाँकि खनन क्षेत्र की विकास दर -0.2% से बढ़ कर 0.1% हो गयी। जीडीपी की खबर के बाद शेयर बाजार की गिरावट में कमी आयी।विनिर्माण और खनन में मंदी के बावजूद निर्माण और वित्तीय क्षेत्रों में सेवाओं की मदद से मौजूदा वित्त वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को बल मिला। हालांकि विनिर्माण का प्रभाव परिवहन क्षेत्र की सेवाओं पर पड़ा जिसकी विकास दर व्यापार, होटल और संचार के समान ही अप्रैल से जून तिमाही में कम होकर 4 फीसदी पर आ गई और यह पिछले 12 वर्षों के दौरान सर्वाधिक न्यूनतम है। पिछले वित्त वर्ष की आखिरी तिमाही में इस क्षेत्र की विकास दर 13.8 फीसदी दर्ज की गई थी।

वित्त वर्ष 2010-11 की पहली तिमाही के बाद से जीडीपी में जारी गिरावट का सिलसिला टूटना अर्थव्यवस्था के लिए एक सकारात्मक संकेत है क्योंकि एक लंबे अरसे के बाद तिमाही आंकड़ों में जीडीपी ने एक बार फिर बढ़त का रुख किया है। विकास दर की धीमी चाल का संबंध निवेश में ठहराव आने से है, जोकि सरकार के लिए चिंता का विषय है।ऐसे में इसे सुधारने और खासकर कारखाना क्षेत्र में निवेश से जुड़ी बाधाओं को दूर करने के लिए तेजी के साथ कदम उठाने की सख्त जरूरत है। इसके अलावा जीडीपी के ताजा तिमाही आंकड़ों में कुछ सकारात्मक चीजें भी देखी जा सकती हैं, जैसे कि निर्माण क्षेत्र की विकास दर बीते वित्त वर्ष की की पहली तिमाही के 3.5 फीसदी से बढ़कर चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 10.9 फीसदी पर पहुंच जाना काफी महत्वपूर्ण है।

इस बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने साफ किया कि वे अपने पद से इस्तीफा नहीं देंगे। प्रधानमंत्री ने तेहरान से लौटते वक्त एक सवाल के जवाब में मीडिया प्रतिनिधियों को बताया कि उन्हें अपने पद की मर्यादा रखनी है। उनके इस्तीफे के लिए भाजपा को 2014 तक इंतजार करना होगा।कोल ब्लॉक आवंटन को लेकर संसद में विपक्ष के रुख की प्रधानमंत्री ने आलोचना की। पीएम ने भाजपा से कहा कि वह संसद को चलने दे। हालांकि उन्होंने साफ किया कि वो आरोप-प्रत्यारोप में नहीं पड़ना चाहते। राहुल गांधी के मंत्री बनने पर पीएम ने कहा कि उन्हें पूरा यकीन है कि राहुल जल्द ही कैबिनेट का हिस्सा बनेंगे।वित्‍त वर्ष 2012-13 की पहली तिमाही में देश की विकास दर में केवल 0.2 फीसदी का मामूली इजाफा हुआ है। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था फिर बुरी तरह आहत हुई है। यूपीए-2 के शासनकाल में लगातार विकास दर कम हुई है और आम आदमी की हालत बद से बदतर हुई है। 2009 से लेकर अब तक लगातार वित्तीय घाटा बढ़ रहा है। महंगाई आसमान पर है। नौकरियों का सूखा-सा पड़ने लगा है। डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार दम तोड़ता दिख रहा है। आम जनता की क्रय शक्ति न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था की तस्वीर बिगाड़ने में मैन्यूफैक्चरिंग और खनन क्षेत्र का खासा योगदान रहा है। महंगे कर्ज ने मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की रफ्तार को बेहद धीमा कर दिया है। वहीं कोयला खदानों के उत्पादन में कमी ने खनन क्षेत्र का प्रदर्शन बिगाड़ा है। पहली तिमाही में दोनों क्षेत्रों की विकास दर एक प्रतिशत से भी कम रही है।

कोयला ब्लॉक आवंटन को लेकर शुक्रवार को भी संसद में गतिरोध जारी रहा। इस गतिरोध के बीच शुक्रवार को समाजवादी पार्टी (सपा), तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) व वामपंथी दलों ने संसद के बाहर एकजुट होकर तीसरे मोर्चे के वजूद का आभास कराते हुए धरना दिया और कोयला ब्लॉक आवंटन में कथित भ्रष्टाचार की जांच कराने की मांग की। वहीं संसद के अंदर हंगामे के कारण गतिरोध बना रहा।

सरकार की ओर से आज जारी आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 30 जून को समाप्त चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में कृषि वानिकी आर मछली उत्पादन में 2.9 फीसदी की वृद्धि हुई जिससे जीडीपी को पिछली तिमाही के 5.3 फीसदी से बढ़ाकर 5.5 फीसदी करने में मदद मिली। पिछले साल के ऊंचे आधार के कारण सकल जीडीपी में 16 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले कृषि क्षेत्र में चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में गिरकर करीब 1 फीसदी वृद्धि रहने के अनुमान लगाए जा रहे थे।इंटरनैशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) के निदेशक (दक्षिण एशिया) पीके जोशी ने कहा, 'कृषि क्षेत्र में वृद्धि उम्मीद से कहीं बेहतर रही है। ऐसा मुख्य रूप से पिछले साल रबी फसलों की बेहतर उपज और छिटपुट बारिश का प्रभाव न पडऩे के कारण संभव हुआ।' अर्थशास्त्रियों ने कहा कि पिछले साल के रबी फसलों की कटाई 2012-13 में हुई और इससे कृषि वृद्धि को बल मिला। केयर रेटिंग के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने कहा कि कृषि क्षेत्र में अच्छी वृद्धि दर्ज की गई है और इसका मुख्य कारण रहा रबी फसलों का रिकॉर्ड उत्पादन। आंकड़ों के अनुसार, गेहूं का उत्पादन कृषि वर्ष 2011-12 (जुलाई-जून) में 8.1 फीसदी बढ़ा, जबकि चावल के उत्पादन में 16.6 फीसदी की गिरावट आई है।

अमेरिका और यूरोप में आर्थिक नरमी के चलते पश्चिमी देशों की मांग में गिरावट और घरेलू स्तर पर सेवा क्षेत्र एवं कारखाना गतिविधियों में सुस्ती के चलते चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 5.5 फीसदी रही, जबकि पिछले वित्त वर्ष की समान अवधि में यह आठ प्रतिशत के स्तर पर थी।देश के शेयर बाजारों में बुधवार को गिरावट का रुख रहा। प्रमुख सूचकांक सेंसेक्स 140 अंकों की गिरावट के साथ 17,490.81 पर और निफ्टी 46 अंकों की गिरावट के साथ 5,287 पर बंद हुआ। बम्बई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) का 30 शेयरों पर आधारित संवेदी सूचकांक सेंसेक्स सुबह 19 अंकों की तेजी के साथ 17,651 पर खुला और 140 अंकों की गिरावट के साथ 17,490 बंद हुआ। दिन के कारोबार में सेंसेक्स 17653 के ऊपरी और 17471 के निचले स्तर तक पहुंचा।महंगाई की ऊंची दर की वजह से उपभोक्ता मांग लगातार कम हो रही है। इसका असर मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र पर पड़ा है। महंगाई के चलते रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति में भी बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। उद्योग जगत लगातार ब्याज दरों में कमी की मांग कर रहा है। महंगे कर्ज से उद्योगों के लिए विस्तार के संसाधन सीमित हो गए हैं। इससे निवेश की दर भी घट रही है। पहली तिमाही में यह 33.2 प्रतिशत से घटकर 32.8 प्रतिशत रह गई है। उद्योग जगत का मानना है कि आर्थिक सुधारों में तेजी लाए बिना औद्योगिक उत्पादन के हालात सुधारना मुश्किल होगा।

हालांकि तिमाही आधार पर इसमें 0.2 फीसदी की मामूली बढ़त दर्ज की गई क्योंकि इससे पिछली तिमाही में आंकड़ा 5.3 फीसदी पर रहा था। सबसे ज्यादा सुस्ती कारखाना और सेवा क्षेत्र में देखने को मिली, जबकि निर्माण (कंस्ट्रक्शन) क्षेत्र ने मजबूत बढ़त दर्ज की। खनन उद्योग भी निगेटिव जोन से उबरने में कामयाब रहा।

केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार गत 30 जून को समाप्त इस तिमाही में कारखाना क्षेत्र की वृद्धि दर मात्र 0.2 फीसदी रही, जबकि वित्त वर्ष 2011 की आलोच्य अवधि में यह 7.3 प्रतिशत रही थी। सेवा क्षेत्र की गतिविधियों में सुस्ती आने से वित्त वर्ष 2012-13 की पहली तिमाही में इस क्षेत्र की विकास दर दहाई अंक से घटकर 6.7 फीसदी पर आ गई, जबकि पिछले वित्त वर्ष की समान अवधि में यह 10.2 फीसदी रही थी।

जीडीपी के आंकडे़ में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी करने वाले औद्योगिक क्षेत्र की विकास दर में भी गिरावट का रुख रहा। गत 30 जून को समाप्त तिमाही में यह 3.6 फीसदी रही, जबकि वित्त वर्ष 2011-12 की समान अवधि में यह 5.6 प्रतिशत रही थी। इस दौरान बिजली क्षेत्र की विकास दर में शिथिलता आई है और यह वित्त वर्ष 2011-12 की पहली तिमाही में आठ प्रतिशत से घटकर 6.3 प्रतिशत पर आ गया।

कृषि गतिविधियों में भी सुस्ती देखने को मिली है और चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही इस क्षेत्र की विकास दर महज 2.9 फीसदी रही, जबकि वित्त वर्ष 2011-12 की समान अवधि में यह 3.7 प्रतिशत रही थी। हालांकि आलोच्य अवधि में देश के निर्माण क्षेत्र में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है और पहली तिमाही में यह बढ़कर 10.9 प्रतिशत पर पहुंच गई है। वित्त वर्ष 2011 12 की समान अवधि में 3.5 फीसदी के स्तर पर थी।

खनन क्षेत्र भी नकारात्मक वृद्धि से उबरते हुए पहली तिमाही में 0.1 प्रतिशत की दर से बढ़ा जबकि वित्त वर्ष 2011-12 की समान अवधि में यह नकारात्मक 0.2 प्रतिशत रहा था। वित्त वर्ष 2011-12 में देश की जीडीपी 6.5 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी और चालू वित्त वर्ष में भी इसके 6.5 प्रतिशत से लेकर 6.7 प्रतिशत के बीच रहने का अनुमान जताया जा रहा है।

केंद्र सरकार देश के कॉरपोरेट क्षेत्र की आर्थिक सेहत मापने के लिए एक सूचकांक बनाने की योजना बना रही है। कंपनी मामलों के मंत्री वीरप्पा मोईली ने यहां इंस्टीट्यूट ऑफ कंपनी सेक्रेटरीज ऑफ इंडिया द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में यह जानकारी दी।

मोईली ने कहा कि इसके लिए एक मजबूत आर्थिक पैमाना तय किया जाएगा और कंपनियों के प्रदर्शन को इसी पैमाने पर नापा जाएगा। यह नया पैमाना या सूचकांक बनाने का काम किसी विश्वसनीय साख निर्धारक संस्था को सौंपा जाएगा।

उन्होंने कहा कि देश के निवेश माहौल को लेकर निवेशकों में बढ़ती चिंताओं को देखते हुए सरकार ने यह नया पैमाना बनाने का फैसला किया है। नए कंपनी कानून 2011 के संबंध में उन्होंने उम्मीद जताई कि संसद के अगले सत्र में यह पारित हो जाएगा। प्रस्तावित कानून में कंपनियों के सतत और समग्र विकास के लिए बेहतर नियामक ढांचा तैयार करने की कोशिश की गई है।

उच्चतम न्यायालय ने देश में सार्वजनिक वितरण पण्राली की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि कारगर तरीके से इसे लागू करने के दावों के बावजूद गरीबों की हालत जस की तस है। न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अमल के बारे में हमें रिपोर्ट तो मिल रही हैं लेकिन जहां तक गरीबों का सवाल है तो वे अब भी परेशान हाल हैं। न्यायाधीशों ने कहा कि यह मामला 11 साल से लंबित है और अब वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर प्रभावी तरीके से अमल के बारे में आदेश पारित करेंगे। इस मामले में न्यायालय को इसमें अब तक 22 रिपोर्ट मिल चुकी हैं। न्यायाधीशों ने केंद्र सरकार को इस मामले में और अधिक समय देने से इनकार करते हुए कहा, यह मुकदमा इस तरह नहीं चल सकता है। न्यायालय को मिली 22 रिपोर्ट इस मामले में निर्देश देने के लिए पर्याप्त हैं।

विश्व बैंक ने वैश्विक स्तर पर खाद्य वस्तुओं के दाम जुलाई माह में 10 फीसदी चढ़ने की बात कही है। बैंक का कहना है कि इससे दुनियाभर के गरीबों खासकर अफ्रीका और पश्चिम एशिया के लोगों के लिए परेशानी बढ़ गई है। सूखे और बढ़ते तापमान की वजह से अमेरिका और पूर्वी यूरोप में कुछ महत्वपूर्ण अनाज की फसलों में कमी आई है। वहीं दूसरी ओर मक्का और सोयाबीन के दाम नई ऊंचाई पर पहुंच गए हैं।


विश्व बैंक ने आगाह किया है कि 2008 के मध्य तथा 2011 की शुरुआत की तरह कीमतों में आई तेजी से ज्यादातर खाद्य आयात करने वाले देशों की सेहत को लेकर अंदेशा बढ़ा है।


विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम यांग किम ने एक बयान में कहा, खाद्य वस्तुओं के दाम एक बार फिर चढ़ रहे हैं, जिससे दुनियाभर में लाखों लोगों की परेशानी बढ़ी है। जून से जुलाई के दौरान मक्का और गेहूं कीमतों में जहां 25 फीसदी का इजाफा हुआ, वहीं सोयाबीन के दाम 17 प्रतिशत चढ़े।

अर्थव्यवस्था में टिकाऊ विकास लाने और देश के सभी लोगों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए फाइनेंशियल इनक्लूजन को विकल्प के तौर पर नहीं, बल्कि जरूरी कदम के तौर पर अपनाना होगा। दैनिक भास्कर समूह की तरफ से आयोजित 'फाइनेंशियल इनक्लूजन कॉनक्लेव 2012' में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष डॉ.सी. रंगराजन ने यह बात कही। इस मौके पर संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री सचिन पायलट ने कहा कि आर्थिक आजादी के बिना लोगों का सशक्तीकरण संभव नहीं है।





वित्तीय सुविधाओं की कमी के खतरे को रेखांकित करते हुए दैनिक भास्कर समूह के चेयरमैन रमेश चंद्र अग्रवाल ने कहा कि इससे दो भारत बन रहा है। एक समृद्ध भारत जहां सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं और दूसरा वित्तीय सुविधाओं से महरूम गरीब भारत। इस मौके पर एलआईसी के कार्यकारी निदेशक (माइक्रो इंश्योरेंस) वी. सत्यकुमार ने कहा कि अभी तक 50 फीसदी आबादी तक बैंकिंग या बीमा की पहुंच नहीं है। इन तक बैंकिंग और बीमा की पहुंच बनानी होगी, तभी इन्हें मुख्यधारा में शामिल किया जा सकेगा।





एनसीडीईएक्स के प्रमुख - कॉरपोरेट सर्विसेज एम.के. आनन्द कुमार ने कहा कि दहाई अंकों में आर्थिक विकास के लिए ग्रामीण क्षेत्र का विकास जरूरी है। कॉनक्लेव के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए डॉ. रंगराजन ने कहा कि आर्थिक और सामाजिक रूप से हाशिये पर बैठे लोगों को मुख्यधारा में लाने का एक ही उपाय है कि उन्हें संगठित वित्तीय तंत्र में भागीदार बनाया जाए। उन्हें अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्र- कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र से जोडऩा होगा। यही नहीं, संगठित वित्तीय तंत्र का विस्तार देश के सभी क्षेत्रों में करना होगा। अभी भौगोलिक रूप से जटिल क्षेत्रों में संगठित वित्तीय तंत्र का विस्तार कम ही है।





उन्होंने कहा कि समाज के निम्न आय वर्ग के लोगों को बेहद कम कीमत पर ऋण और अन्य वित्तीय सेवाएं उपलब्ध करानी होंगी। वित्तीय सेवाओं के विभिन्न रूप जैसे बचत, ऋण, बीमा और भुगतान तथा अंतरण सेवाओं से भी उन्हें जोडऩा होगा। रंगराजन के मुताबिक यह कहना गलत होगा कि जो लोग संगठित वित्तीय तंत्र से ऋण नहीं ले पा रहे हैं, वे फाइनेंशियल इनक्लूजन से बाहर हैं। महत्वपूर्ण यह है कि यदि कोई बैंक से कारोबार करने योग्य है और उन्हें बैंक से क्रेडिट चाहिए तो उसे ऋण देने से इनकार नहीं किया जाना चाहिए।





इस मौके पर संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री सचिन पायलट ने कहा कि आर्थिक आजादी के बिना लोगों का सशक्तीकरण और विकास संभव नहीं है। जहां कही भी वित्तीय सशक्तीकरण हुआ है, वहां विकास अपने-आप आया है। उन्होंने कहा कि वित्तीय सेवाओं से लोगों को अवगत नहीं कराया गया तो हम विकसित राष्ट्र बनने का ख्वाब भूल जाएंगे। इन सबके लिए संपर्क साधन और तकनीक का इस्तेमाल जरूरी है।





इस अवसर पर दैनिक भास्कर समूह के अध्यक्ष रमेश चंद्र अग्रवाल ने कहा कि केन्द्र सरकार हर साल लाखों करोड़ रुपये सब्सिडी के रूप में देती है। राज्यों की सब्सिडी अलग से है। तो फिर अर्थव्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर बैठे लोगों का वित्तीय समावेशन क्यों नहीं होना चाहिए। इस समय देश के 50 फीसदी लोग जानते ही नहीं कि बैंक से लोन लेना क्या चीज है। उन्हें कभी बैंकिंग सुविधा मिली ही नहीं क्योंकि वे योजनाओं के पात्र नहीं बन पाते। ऐसे में दो भारत बन रहा है। एक समृद्ध भारत जहां सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं और दूसरा गरीब भारत जहां लोग वित्तीय सुविधाओं से भी महरूम हैं। उन्होंने सवाल उठाया कि ऐसे में हाशिये पर बैठे लोगों की अगली पीढ़ी का क्या होगा?

Ritwik Ghatak

Ritwik Ghatak

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Ritwik Ghatak
Image of Ritwik Ghatak, a Bengali film director
Image of Ritwik Ghatak
Born Ritwik Kumar Ghatak
4 November 1925
Jindabazar, Dhaka, Bengal, British India
Died 6 February 1976 (aged 50)
Kolkata, West Bengal, India
Occupation Film maker and writer
Nationality Indian
Citizenship Indian
Notable work(s) Nagarik, Ajantrik, Subarnarekha, Meghe Dhaka Tara
Notable award(s) Padma Shri
National Film Award's Rajat Kamal Award Best Story for Jukti Takko Aar Gappo
Best Director's Award from Bangladesh Cine Journalist's Association for Titash Ekti Nadir Naam
Spouse(s) Surama Ghatak[1]
Children Ritaban Ghatak (son)
Samhita Ghatak (daughter)
Suchismita Ghatak (daughter)
Relative(s) Manish Ghatak (elder brother), Mahasweta Devi (niece)


Ritwik Ghatak or Ritwik Kumar Ghatak (About this sound Rittik (Kumar) Ghôţok; 4 November 1925 – 6 February 1976)[5][6] was a Bengali Indian filmmaker and script writer. Along with prominent contemporary Bengali filmmakers Satyajit Ray and Mrinal Sen, his cinema is primarily remembered for its meticulous depiction of social reality. Although their roles were often adversarial, they were ardent admirers of each other's work, and in doing so, the three directors charted the independent trajectory of parallel cinema, as a counterpoint to the mainstream fare of Hindi cinema in India. Ghatak received quite a few awards in his career, including National Film Award's Rajat Kamal Award for Best Story in 1974 for his fim Jukti Takko Aar Gappo,[7] Best Director's Award from Bangladesh Cine Journalist's Association for Titash Ekti Nadir Naam. The Government of India honoured him with the Padma Shri for Arts in 1970.[8][9]

Contents

Early life

Ritwik Ghatak was born in Dhaka in East Bengal (now Bangladesh).[10] Ghatak's father Suresh Chandra Ghatak was a district magistrate and also a poet and playwright; his mother's name was Indubala Devi.[11] He and his twin sister Prateeti, were the youngest of nine children.[12] The other children were – Manish, Sudhish, Tapati, Sampreeti, Brototi, Ashish Chandra and Lokesh Chandra. He and his family moved to Calcutta (now Kolkata) in West Bengal just before millions of other refugees from East Bengal began to flood into the city, fleeing the catastrophic Bengal famine of 1943 and the partition of Bengal in 1947. Identification with this tide of refugees was to define his practice, providing an overriding metaphor for cultural dismemberment and exile that unified his subsequent creative work. The 1971 Bangladesh Liberation War, which led to more refugees fleeing to India, was to also have a similar impact on his work.

Creative career

In 1948, Ghatak wrote his first play Kalo sayar (The Dark Lake), and participated in a revival of the landmark play Nabanna. In 1951, Ghatak joined the Indian People's Theatre Association ( IPTA ). He wrote, directed and acted in plays and translated Bertolt Brecht and Gogol into Bengali. In early 1970s, he wrote and directed his last play Jwala (The Burning).The music director was Darbar Bhaduri,who was called by Ghatak 'Dada' or 'Guru' from his childhood.Ghatak was inspired by Darbar Bhaduri a lot.In Rajshahi,Bangladeh—his homeland Ritwik lived beside Bhaduri's house. Almost all time he was with Darbar Bhaduri.Darbar Bhaduri was 'King maker' who kept himself away from outside world.But,Ghatak by pressure made Darbar Bhaduri the music director of 'Jwala',and the music was extraordinary.

Ghatak entered the film industry with Nimai Ghosh's Chinnamul (1950) as actor and assistant director. Chinnamul was followed two years later by Ghatak's first completed film Nagarik (1952), both major break-throughs for the Indian cinema.[13][14] Ghatak's early work sought theatrical and literary precedent in bringing together a documentary realism, a stylised performance often drawn from the folk theatre, and a Brechtian use of the filmic apparatus.

Ghatak's first commercial release was Ajantrik (1958), a comedy-drama film with science fiction themes. It was one of the earliest Indian films to portray an inanimate object, in this case an automobile, as a character in the story.

Ghatak's greatest commercial success as a script writer was for Madhumati (1958), one of the earliest films to deal with the theme of reincarnation. It was a Hindi film directed by another Bengali filmmaker Bimal Roy. The film earned Ghatak his first award nomination, for the Filmfare Best Story Award.

Ritwik Ghatak directed eight full-length films. His best-known films, Meghe Dhaka Tara (The Cloud-Capped Star) (1960), Komal Gandhar (E-Flat) (1961), and Subarnarekha (Golden Lining) (1962), a trilogy based in Calcutta and addressing the condition of refugee-hood, proved controversial and the commercial failure of Komal Gandhar (E-Flat) and Subarnarekha prevented him from making features through the remainder of the 1960s. In all three films, he used a basic and at times starkly realistic storyline, upon which he inscribed a range of mythic references, especially of the Mother Deliverer, through a dense overlay of visual and aural registers.

Ritwik Ghatak, in a young age

Ghatak moved briefly to Pune in 1966, where he taught at the Film and Television Institute of India (FTII). During his year at FTII, he was involved in the making of two student films, viz., Fear and Rendezvous.

Ghatak returned to film making only in the 1970s, when a Bangladeshi producer financed the 1973 epic Titash Ekti Nadir Naam (A River Called Titas). Making films became difficult because of his poor health due to extreme alcoholism and consequent diseases. His last film was the autobiographical Jukti Takko Aar Gappo (Reason, Debate And Story) (1974), in which he portrayed Neelkantha (Nilkanth) the lead character.[15] He also had a number of incomplete feature and short films in his credit.


Ghatak's elder brother Manish Ghatak was a radical writer of his time, a professor of English and a social activist who was deeply involved with the IPTA theatre movement in its heyday and later on headed the Tebhaga Andolan of North Bengal. Manish Ghatak's daughter is the writer and activist Mahasweta Devi. Ghatak's wife Surama was a school teacher. His son Ritaban is a film-maker.[16]

Impact and influence

A scene from Ghatak's last film Jukti Takko Aar Gappo (1974)

At the time of his death (February 1976), Ghatak's primary impact would seem to have been through former students. Though his stint teaching film at FTII was brief, one-time students Mani Kaul, John Abraham, and especially Kumar Shahani (among many others), carried Ghatak's ideas and theories, which were further elaborated upon in his book Cinema And I, into the mainstream of Indian art film. Other students of his at the FTII included the acclaimed filmmakers Saeed Akhtar Mirza and Adoor Gopalakrishnan.[17] Ghatak stood entirely outside the world of Indian commercial film. None of the elements of the commercial cinema (singing and dancing, melodrama, stars, glitz) featured in his work.[citation needed] He was watched by students and intelligentsia, not by the masses. His students have also tended to work in the art cinema or independent cinema tradition.

While other neo-realist directors like Satyajit Ray succeeded in creating an audience outside India during their lifetime, Ghatak was not so fortunate. While he was alive, his films were appreciated primarily within India. Satyajit Ray did what he could to promote his colleague, but Ray's generous praise did not translate into international fame for Ghatak. For example, Ghatak's Nagarik (1952) was perhaps the earliest example of a Bengali art film, preceding Ray's Pather Panchali by three years, but was not released until after his death in 1977.[13][14] His first commercial release Ajantrik (1958) was also one of the earliest Indian films to portray an inanimate object, in this case an automobile, as a character in the story, many years before the Herbie films.[18] Ghatak's Bari Theke Paliye (1958) had a similar plot to François Truffaut's later film The 400 Blows (1959), but Ghatak's film remained obscure while Truffaut's film went on to become one of the most famous films of the French New Wave. One of Ghatak's final films, Titash Ekti Nadir Naam (1973), is one of the earliest films to be told in a hyperlink format, featuring multiple characters in a collection of interconnected stories, predating Robert Altman's Nashville (1975) by two years.

Ghatak's only major commercial success was Madhumati (1958), a Hindi film which he wrote the screenplay for. The film was one of the earliest to deal with the theme of reincarnation and is believed to have been the source of inspiration for many later works dealing with the theme of reincarnation in Indian cinema, Indian television, and perhaps world cinema. It may have been the source of inspiration for the American film The Reincarnation of Peter Proud (1975) and the Hindi film Karz (1980), both of which dealt with reincarnation and have been influential in their respective cultures.[19] Karz in particular was remade several times: as the Kannada film Yuga Purusha (1989), the Tamil film Enakkul Oruvan (1984), and more recently the Bollywood film Karzzzz (2008). Karz and The Reincarnation of Peter Proud may have also inspired the American film Chances Are (1989).[19] The most recent film to be directly inspired by Madhumati is the hit Bollywood film Om Shanti Om (2007), which led to the late Bimal Roy's daughter Rinki Bhattacharya accusing the film of plagiarism and threatening legal action against its producers.[20][21]

Ghatak's work as a director also had an impact on many later Indian filmmakers, including those from the Bengali film industry and elsewhere. Ghatak is said to have influences on Kumar Shahani, Mani Kaul, Ketan Mehta, and Adoor Gopalakrishnan.[4] For example, Mira Nair has cited Ghatak as well as Ray as the reasons she became a filmmaker.[22] Ghatak's impact as a director began to spread beyond India much later; beginning in the 1990s, a project to restore Ghatak's films was undertaken, and international exhibitions (and subsequent DVD releases) have belatedly generated an increasingly global audience. In a critics' poll of all-time greatest films conducted by the Asian film magazine Cinemaya in 1998, Subarnarekha was ranked at No. 11 on the list.[23] In the 2002 Sight & Sound critics' and directors' poll for all-time greatest films, Meghe Dhaka Tara was ranked at No. 231 and Komal Gandhar at No. 346 on the list.[24] In 2007, A River Named Titas topped the list of 10 best Bangladeshi films, as chosen in the audience and critics' polls conducted by the British Film Institute.[25]

Works

Though Ghatak is mainly known as film director, he wrote many stories, plays too. In his creative career, Ghatak made 8 full length feature films and few short films and documentaries. He also wrote many short stories, plays and poetries. Ghatak wrote more than 50 articles and essays on film.

Awards, honours and recognitions

  • Padma Shri for Arts in 1970 by The Government of India.[8][9]
  • Madhumati Nominated for Filmfare Best Story Award.
  • National Film Award's Rajat Kamal Award for Best Story in 1974 for Jukti Takko Aar Gappo].
  • Best Director's award from Bangladesh Cine Journalist's Association for Titash Ekti Nadir Naam.
  • Ajantrik got special entry in the Venice Film Festival in 1959.
  • Screening of Meghe Dhaka Tara at Various Festivals.
  • In a critics' poll of all-time greatest films conducted by Asian film magazine Cinemaya in 1998, Subarnarekha was ranked at No. 11 on the list.
  • In the 2002 Sight & Sound critics' and directors' poll for all-time greatest films, Meghe Dhaka Tara was ranked at No. 231 and Komal Gandhar at No. 346 on the list.
  • In 2007, A River Named Titas topped the list of 10 best Bangladeshi films, as chosen in the audience and critics' polls conducted by the British Film Institute.
  • Heerer Prajapati had won the Best Children's Film Award (Prime Minister's Gold Medal) at 16th National Film Awards in 1970.[26]

Further reading

References

  1. ^ "My husband as I saw him". timesofindia.com. Retrieved 8 March 2012.
  2. ^ "Politics and Melodrama: The Partition Cinema of Ritwik Ghatak". Harvard Film. Retrieved 9 March 2012.
  3. ^ "Why we admire Satyajit Ray so much". Retrieved 8 March 2012.
  4. ^ a b "Ritwik Ghatak". calcuttaweb. Retrieved 8 March 2012.
  5. ^ "Biography of Ritwik Ghatak". gomolo. Retrieved 8 March 2012.
  6. ^ "Ritwik Ghatak bio at Senses of Cinema". http://sensesofcinema.com. Retrieved 24 June 2012.
  7. ^ "Na22nd National Film Awards". Iffi.nic.in. Retrieved 2012-07-30.
  8. ^ a b "National Portal of India". India.gov.in. Retrieved 2012-07-30.
  9. ^ a b "Controversy". Ramachandraguha.in. Retrieved 2012-07-30.
  10. ^ Hood, J.W.: The Essential Mystery, page 20.
  11. ^ "Ritwik Ghatak". Calcutta Tube. Retrieved 9 March 2012.
  12. ^ "Ritwik Ghatak". Retrieved 9 March 2012.
  13. ^ a b Ghatak, Ritwik (2000), Rows and Rows of Fences: Ritwik Ghatak on Cinema, Ritwik Memorial & Trust Seagull Books, pp. ix & 134–36, ISBN 81-7046-178-2
  14. ^ a b Hood, John (2000), The Essential Mystery: The Major Filmmakers of Indian Art Cinema, Orient Longman Limited, pp. 21–4, ISBN 81-250-1870-0
  15. ^ Hood, J.W.: The Essential Mystery, page 45.
  16. ^ "Ritaban Ghatak". Biff.kr/. Retrieved 2 May 2012.
  17. ^ Chitra Parayath (08/11/2004). "Summer Viewing — The Brilliance Of Ritwik Ghatak". Lokvani. Retrieved 30 May 2009.
  18. ^ Carrigy, Megan (October 2003), "Ritwik Ghatak", Senses of Cinema, retrieved 3 May 2009
  19. ^ a b Doniger, Wendy (2005), "Chapter 6: Reincarnation", The woman who pretended to be who she was: myths of self-imitation, Oxford University Press, pp. 112–136 [135], ISBN 0-19-516016-9
  20. ^ Ashanti nags Om Shanti Om[dead link] Mumbai Mirror, 7 August 2008.
  21. ^ "Shah Rukh, Farah Sued: Writer Claims SRK stole his script for Om Shanti Om". Humsurfer.com. Retrieved 2012-07-30.
  22. ^ "Why we admire Ray so much". Naachgana. 14 April 2009. Retrieved 6 June 2009.
  23. ^ Totaro, Donato (31 January 2003), "The "Sight & Sound" of Canons", Offscreen Journal (Canada Council for the Arts), retrieved 19 April 2009
  24. ^ "2002 Sight & Sound Top Films Survey of 253 International Critics & Film Directors". Cinemacom. 2002. Retrieved 19 April 2009.
  25. ^ "Top 10 Bangladesh Films". British Film Institute. 17 July 2007. Retrieved 14 March 2009.[dead link]
  26. ^ {{cite web|url=http://iffi.nic.in/Dff2011/Frm16thNFAAward.aspx?PdfName=16NFA.pdf |title=[[16th National Film Awards |publisher=Iffi.nic.in |date= |accessdate=2012-07-30}}

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